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सुर की नालि सुरति का तूंबा सतगुर साज बनाया । सुर नर गण गंध्रप ब्रहादिक, गुर बिन तिनहू न पाया ॥ जिस्या तांति नासिका करही, माया का मैण लगाया । गमां वतीस मोरणां पांचौ नीका साज बनाया॥ जंची जत्र तजै नहीं बाजै, तब बाजै जब बावै । कहै कबीर सोई जन साचा, जंत्री सू प्रीति लगावै॥

शब्दार्थ्- जश्री=वादक, परमात्मा । जश्र =यन्त्र, जगत। गगन=सहस्त्रार । गध्रव=गन्धवं मण=मोम। गमा=गमक पदा करने वाले। मोरणा=तारों को कमने वाली खूटियां। बावै =बजाता है।

संदर्भ-कबीर भगवद्भक्ति का प्रतिपादन करते हैं। भावार्थ-परमात्मा रुपी वादक इस जगत रुपी बाजे को अनोखे ढग से वजाता है। इस वाध से उत्पन्न शब्द सह्स्त्रार मे अनह्दनाद के रुप मे सुनाई देता है।

अपने शरीर के भीतर इस शब्द को प्रकट करने का उपाय बत्ताते हुए कबीर कहते हैं कि यह शरीर ही इस शब्द को प्रकट करने की वीणा है जिसमे श्वास (प्राणवायु) रुपी नली है और सुरति रुपी तुम्वा लगता है। अनहद नाद उत्पत्र करने का यह वाजा गुरु के नीदॅर्शानुसार ही तैयार होता है। देवता,मनुष्य,गधर्व,ब्रहा-आदिक कोइ भी गुरु की सहायता के बिना इसको तैयार नही कर सके हैं। इस वीणा मे जीभ रुपी तात है जिससे रामनाम का शब्द उत्पत्र होता है तथा नासिका ही करहीं (यश्र का अवयव विशेप-एक प्रकार की खूँटी)है और इसमे माया-रुपी मोम लगता है। वतीस दात ही गमक पदा करने वाले गामा है तथा पाँचो ज्ञानेनिद्र्याँ हो तारो को कसने वाली खूटीयाँ हैं। इस प्रकार यह शरीर रूपी बाजा बहुत ही सुन्दर बना हुआ है। जब चतन्य रूपी वादक इस बाजे को छोड देता है,तब यह बाजा नही बजाता है। जब वह इसको अपना लेता है, तब यह बजने लगता है। कबीर दाम कहते हैं की वही सच्चा भक्त है जो इस यन्त्र के वाह्क अर्थात् परमात्मा मे प्रेम करता है।

अलंकार-(1) साग रूपक-पुरे पद मे। विशेष-(1) कायायोग और भक्ति का सुन्दर समन्वय है। (11) कबीर का भ्क्त रुप स्पष्ट है। (111)गुरु की महिमा ह्ष्टध्य है-तुलना करें- गुरु बिनु होप फि ग्यन, ग्यन कि होय विराग बिनु गावहिं येब पुरान, भय कि तरिय हरि भगत बिनु॥

                                    -गोस्वामी तुलसीदास