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बीज जाग्रत,स्व्प्न् जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति| अथवा--पृथ्वी, जल,तेज , वायु ,आकाश, अहंकार तथा महत्व| (vII)माहा-डा० माताप्रसाद गुप्त ने लिखा है कि 'माया' के मानवीकरण के कारण उसके नाम की 'या' की ध्वनि 'हा' मै परिवर्तित होगई है| (vIII)माधो- जुलाहा| कबीर ने कई पदो मे संसार को जीतने की बात कही है| उसके अनुसार इस पंक्ति का अर्थ इस प्रकार होगा कि माया ने मुझको जिविका मे फसाना चाहा,परन्तु मै उसमे लिप्त नही हुआ ओर इस प्रकार जुलाहा कबीर ने इस संसार को जीत लिया है| (|x)इस पद के भाँति कई पदो मे कबीरदास ने जुलाहागीरी के प्रतीको का प्रयोग किया है| इससे स्पष्ट है कि कबीरदास के यहाँ जुलाहे का काम होता था|

                                (१६४)

बाजै जत्र बजावै गुंती,

       राम ठांम बिन भूली दुनी||टेक  ||
रजगुन सतगुन तमगुन तीन, पच तत ले साज्या बीन।

तीनि लोक पूरा पेखनां , नांच नचावै एकै जनां|| कहै कबीर स्ंसा करि दूरि, त्रिभवन नाथ रह्या भरपूरि| शब्दार्थ- प्रेक्षण= खेल| भरपुरि= व्याप्त| पेखना= ह्श्यमान| सन्दर्भ- कबीरदास सर्वव्यापी परमात्मा जगत का वर्णन करते हैं| भावार्थ- यह संसार-रुपि यन्त्र वजता है, और परमात्मा रूपी गुणी कलाकार उसको बजाता है। राम-नाम के बिना यह दुनिया उसके सगीत में भूली हुइ है अर्थात् उसके प्रपच में फँसी हुई है। तीन गुणों ( रजोगुण सतोगुण और तमोगुण) तथा पच महाभूतो (पृथ्वी, जल तेज वायु आकाश) को लेकर इस जगत रूपी वीणा का निर्माण किया है। तीनों लोकों तथा इस समस्त हश्यमान जगत को वही एक सुत्रधार नाच नचा रहा है। कबीरदास कह्ते हैं कि इस् अविद्या को दूर करो अर्थात् यह बात भूल जाओ कि यह सहार विषय- वासनाओ द्वारा निर्मित है अथवा विषय- वासनाए'" तुम्हे तृप्ति कर सकती हैं। वास्तविक तत्त्व तो वह तीनों लोकों का स्वामी है जो सर्वत्र व्याप्त हो रहा है। अलंकार - (१) रूपकातिशयोक्ति-जत्र गुनी, वीन। विशेष- तीन लोक-जना। तुलना करें- जग पेखन तुम्ह देखन हारे। विधि हरि सभु नचावन बारे। सोउ न जानहिं मर्म तुम्हारा। और तुम्हहिं को जानन हारा।

                              (२३४)

जंत्री जंत्र अनुपम बाजै,

      ताका सबद गगन में गाजै॥ टेक ॥