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[कबीर
 


भावार्थ—हे जीव, तू दस-पाँच दिन के वैभव के कारण सेमल के फूल की तरह व्यर्थ ही फूल रहा है। तू सच्चे स्वामी भगवान को भूल गया है और मिथ्या संसार के प्रति आसक्त हो रहा है। जो वास्तविक आनन्द था, उसको तो तूने इधर-उधर फैलाकर छोड़ दिया। हे भगवन मैं (प्रण करता हूँ कि) आपके नाम के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को आसक्ति का पात्र नहीं समझेगा। हे मेरे प्यारे आत्मा (मन भी हो सकता है। तू ध्यान से सुन ले। केवल राम का सम्बन्ध ही सच्चा सम्बन्ध है। जिन अन्य व्यक्तियों से तू सम्बन्ध मानता है, उनका ग्राहक तो केवल भ्रम है और वे सबके सब नरक में जायेंगे। जब हंस रूपी प्राण तुझको छोड़ देंगे, तब तेरी ओर से सबका मन हट जाएगा और किसी के साथ किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रह जाएगा। तेरे वे तथाकथित सम्बन्धी तेरे शरीर की मिट्टी में मिला कर पीछे से तेरे प्रति अवज्ञा प्रकट करेंगे। कबीर कहते हैं कि सांसारिक सम्बन्धों में फंसे हुए सब लोग अंधे हो रहे हैं और वास्तविकता को नहीं देखते हैं। कोई व्यक्ति ही श्रेष्ठ है जो सांसारिक सम्बन्धों के मिथ्यात्व को समझता है। जो व्यक्ति परम तत्व (भगवान) के मर्म को नहीं जानते हैं, वे व्यर्थ ही इन प्रपंचों में फँसे रहते हैं अर्थात् भगवान के स्वरूप को न जानने के कारण ही लोगों ने जगत् के सम्बन्धों का यह पसारा बना रखा है।

अलंकार—(i) उपमा—जैसे सैवल।
(ii) पदमैत्री—यहुँ चहुँ जिनि तिनि।
(iii) सभग पद यमक—नरक नर, माटी माटी
विशेष—(i) जैसे सैवल फूलै—तुलना करै—

सेंमर सुअना सेइया यह ढेंड़ी की आस।
ढेड़ी फूटि चटाक दै, सुअना चला निरास। (कबीर)

(ii) झूँठी भूले—कबीर ने अन्यत्र भी कहा है—

साँची प्रीति विखै—माया सूँ, हरि भगतनि सूँ हाँसी।

(iii) माटी तू मांटी मेलि—हिन्दू जलाकर राख कर देते हैं। मुसलमान जमीन में गाड़ देते हैं। दोनों स्थितियों में मिट्टी का यह पुतला मिट्टी में ही मिल जाता है।

(iv) 'निर्वेद' संचारी भाव की व्यंजना है। कबीर ने इस प्रकार का उद्बोधन प्रायः व्यक्त किया है कि—"फूला फूला फिरै जगत में रे मन कैसा नाता रे!" तथा—

फिरहु क्या फूले फूले फूले।
जो दस बार उरध सुख झूले सो दिन काहे भूले।

××××

देहरि ले बर नारि संग है, आगे संग सुहेला।
मृतक थान ले संग दियो खटोला, फिरि पुन हंस अकेला।