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[कबीर
 


विशेष—(i) ज्ञानी भक्तों की भाँति कबीरदास सिद्धान्तत, ब्रह्म को निर्गुण मानते हैं, परन्तु व्यवहार में उसके सगुण स्वरूप को स्वीकार करते है। यथा—

(i) सब विधि अगम विचारैं यातें सूर सगुन लीला पद गावै।सूरदास

तथा—ज्ञान कहै अज्ञान बिनु, तम बिन कहै प्रकास।
निर्गुन कहै सगुन बिन। सो गुरु तुलसीदास।(तुलसीदास)

(ii) अद्वैतवाद का सबल प्रतिपादन है। निमित्त कारण एवं उपादान कारण दोनों ही स्वयं ब्रह्म है। लीला भी वही है, लीलाधारी भी वही है।

(iii) 'धर्म रथ' का निरूपण करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है कि धर्माचरण के फलस्वरूप समस्त विपक्षी भाव समाप्त हो जाता है—

सखा धर्ममय असरथ जाकें। जीतन कहैं न कतहुँ रिपु ताकें।

(iv) जगत के प्रतीपमान भेद मिथ्या हैं।

(१८७)

तू माया रघुनाथ की, खेलण चड़ी अहेड़ै।
चतुर चिकारे चुणि चुणि मारे, कोई न छोड्या नैड़ै॥टेक॥
मुनियर पीर डिगंबर मारे, जनत करता जोगी।
जगल महि के जगम मारे, तूं र फिरै बलिवंती॥
वेद पढंतां वांह्मण मारा, सेवा करतां स्वामी।
अरथ करतां मिसर पछाड्या, तूं र फिरै मैं मंती॥
सापित कै तूं हरता करता, हरि भगतन कै चेरी।
दास कबीर रांम कै सरनै, ज्यूं लागी त्यूं तोरी॥

शब्दार्थ—अहेडे = शिकार। चिकारा = एक विशेष प्रकार का हिरण। दिगंबर = दिग्बर, जैन-गुरु। मिसर = मित्र, कथा वाचक। मैमती = मद मत्त।

सन्दर्भ—कबीर कहते हैं कि केवल राम भक्ति के द्वारा ही माया से मुक्ति सम्भव है।

भावार्थ—हे रघुनाथजी की माया, तू इस जगत में सबका शिकार करती फिरती है। तूने चुन-चुन कर श्रेष्ठ हिरण रूपी व्यक्तियों को मारा है और तूने अपने आस-पास किसी को नहीं छोड़ा है। तूने मुनि, (हिंदू चिन्तक), पीर (मुसलमानों के धर्म गुरु) जैनियों के धर्मगुरु या योगान्यास में संलग्न योगियों को मार दिया है। तूने जगत में निवान करने वाले जीवों (बटुक, वैखानस एवं सन्यासियों) को मारा है। तू अत्यन्त बलवान बनी हुई चारों ओर घूमती फिरती है।

तूने वेद पाठी ब्राह्मणों को मारा है, तूने सेवा करते-करते स्वामियों मठाधीशों को भी नहीं छोड़ा है। शास्त्रों के अर्थ समझने वाले कथावाचक पंडित भी तुझसे पराजित हो गये हैं। तू अत्यन्त उन्मत्त बनी हुई फिरती है। शाक्त का यहाँ तो चर्चा-चर्चा सब कुछ है (क्योंकि ज्ञान-धर्म पूर्णतः मायामय ही है।) परन्तु भक्तों की तुम दासी हो। कबीर कहते है कि भगवत् भक्त तो राम की शरण में रहता है।