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[कबीर
 

का साक्षात्कार किया है, वह एक ही साथ ज्ञान, भक्ति और परम प्रेम के अद्वैत अनुभूति है। कबीर कभी-कभी 'सहज' लय को बौद्धिक विषय बना देते है। इसी से कुछ समालोचकों के मतानुसार भागवतकार की अनुभूति की भूमिका की अपेक्षा कबीर की अनुभूति किसी सीमा तक निम्न भूमिका पर दिखाई देती है। हमारे विचार से अनुभूति की यह भूमिका भी अखंड है। इसमें स्तर-भेद सम्भव नहीं है। भेद केवल अभिव्यक्ति का है। इस दृष्टि से भागवतकार की अपेक्षा कबीर अवश्य ही कुछ हल्के पड़ते हैं।

(१८२)

अजहूँ न संक्या गई तुम्हारी,
नांहि निसंक मिले बनबारी॥टेक॥
बहुत गरब गरबे सन्यासी, ब्रह्मचरित छूटी नही पासी॥
सुद्र मलेछ बसे मन मांही, आतमरांस सु चीन्ह्यां नाहीं॥
संक्या डांइणि बसै सरीरा, ता कारणि राम रमै कबीरा॥

शब्दार्थ—सक्या = शंका। डांडणि = डाकिनी, चुडैल, काली की एक अनुचरी।

सन्दर्भ—कबीर कहते है कि जब तक सशय है, तब तक भगवान का दर्शन असम्भव है।

भावार्थ—हे साधक! तुम्हारे मन का संदेह अभी भी नहीं गया है। इसी से संदेहातीत भगवान तुम्हें नहीं मिल रहे है, अथवा संदेह रहित हुए बिना बनवारी के दर्शन नहीं होते हे। सन्यासी अपने ज्ञान के गर्व में बहुत गर्वीले बने रहते हैं। इसी ब्रह्मचर्यं व्रत का पालन करते हुए भी उनकी आसक्ति का बन्धन अथवा मोह का बन्धन नष्ट नहीं होता है और वे जीवन-मुक्त नहीं हो पाते हैं। उनके मन में शूद्र-म्लेच्छ समझने की भावना रहती है और वह आत्मस्वरूप प्रभु का साक्षात्कार नहीं कर पाते है। इस शरीर में शंका रूपी डायन का वास है। उसी की निवृत्ति के हेतु कबीर राम की भक्ति करता है।

अलंकार—(i) विशेषोक्ति ....ब्रह्मचरित पासी।
(ii) रूपकतिशयोक्ति—पासी।
(iii) रूपक—संक्य डायनि।
(iv) छेकानुप्रास—नाहिं निसक, गरव गरवै, राम रमे।

विशेष—(i) म्लेच्छ—यवनों को कहते थे। पश्चिम से आने वाले विदेशी आक्रमणकारी 'स्वेच्छ' कहे जाते थे।

(ii) छुआछूत के प्रति कबीर का विरोध मुखर है। उन्होंने जीवन भर इस कूप्रथा का डट कर विरोध किया था।

(iii) संदेहशीलता दुष्परिणाम को समझने के लिए रामचरितमानस में वर्णित शिव-सती प्रसंग आदरणीय है। शिवजी के समझाने पर सती जब यह हृदयंगम।