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सम्रथाई कौ अङ्ग]
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सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरत सब कागद करौं, तऊ हरि गुंण लिख्या न जाइ॥५॥

सन्दर्भ—हरि के गुण = अनिर्वचनीय।

भावार्थ—सात समुद्रों में स्याही घोल लूँ और समस्त वृक्षों को लेखनी बना लूँ समस्त धरती को कागज के रूप में बना लूँ, फिर भी हरि के गुण का उल्लेख नहीं हो सकता है।

शब्दार्थ—मसि = स्याही।

अबरन कौं का बरनिये, मोपै लख्या न जाइ।
अपना वाना बाहिया, कहि कहि थाके माइ॥६॥

संदर्भ—ब्रह्म अनिर्वचनीय है।

भावार्थ—निराकार निर्विकार निर्गुण ब्रह्म अनिर्वचनीय है। वह अलख है, सब लोग अपनी-अपनी अनुभूति का यथाशक्ति वर्णन करते हैं।

शब्दार्थ—अवरन = अवर्ण।

झल बांवै, झल दाहिने, झलहि माँहि व्यौहार।
आगे पीछे झलमई, राखै सिरजणहार॥७॥

संदर्भ—माया की अग्नि चारों ओर जल रही है।

भावार्थ—माया की अग्नि दाहिनी ओर जल रही है, बांई ओर जल रही है। समस्त संसार का व्यापार माया की अग्नि में ही संचालित हो रहा है। माया की अग्नि आगे जल रही है, पीछे जल रही है। रक्षक केवल ब्रह्म है।

शब्दार्थ—झल = अग्नि। व्यौहार = व्यापार।

साई मेरा बांणियाँ, सहजि करै व्यौपार।
बिन डांडी बिन पालड़ै, तौले सब संसार॥८॥

संदर्भ—अपत्यक्षरूप से स्वामी सबके कर्मों का मूल्याकन करता है।

भावार्थ—मेरा स्वामी बनिया हैं, वह सहज रूप से व्यापार करता है। बिना तराजू और बिना पलड़ा के वह समस्त संसार को तौलता है।

शब्दार्थ—वाणियाँ = बनियाँ।

कबीर बारया नांव परि, कीया राई लूँण।
जिसहि चलावै पंथ तूँ, तिसहि भुलावै कौण॥९॥

सन्दर्भ—ईश्वर जिस पथ पर चलाता है, उसी पथ पर प्राणी चलता है।