भावार्थ――माँगना मृत्यु के समान है, परन्तु बिरला ही माँगने से बच पाता है। कबीर कहते हैं कि हे ईश्वर! माँगने से मुझे बचाए रखना।
शब्दार्थ――माँगण=माँगना।
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पांडल पंजर, मन भॅवर, अरथ अनूपम बास।
राम नाम सींच्यां अभी, फल लागा वेसास॥१६॥
संदर्म――राम नाम रूपी अमृत से सोचने पर विश्वास विकसित होता है।
भावार्थ――शरीर पाडुर-पुष्प के समान है, और मन भौरे के सदृश है, अर्थ रूपी अनुपम गन्ध प्रसारित है। राम नाम रुपी अमृत तत्व से सोचने पर विश्वास रुपी फल प्रस्फुटित होता है।
शब्दार्थ――पांडल पुष्प विशेष।
मेर मिटी मुकता भया, पाया ब्रह्म विसास।
अब मेरे दूजा को नहीं, एक तुम्हारी आस॥१७॥
सन्दर्भ――ममता और अह मिट गया ब्रहा की कृपा से।
भावार्थ――भेद भाव की भावना मिट गई और ब्रह्म विश्वास रूपी मुक्ति प्राप्त हो गयी। है नाथ! अब तुम्हारे अतिरिक्त और मेरा कोई नहीं है।
शब्दार्थ――मुक्ता=मुक्त, मोती के समान उज्जवल।
जाकी दिल में हरि बसै, भी नर कलपै काँई।
एकै लहरि समंद की, दुख दलिद्र सब जाइ॥१८॥
सन्दर्भ――हरि की कृपा से समस्त अभाव दूर हो जाते हैं।
भावार्थ――जिसके ह्रदय से ब्रह्म् का वास है वह क्यों दुखी है? क्यों कलप रहा है? हरि की एक कृपा पूर्ण लहर से समस्त दुख दरिद्र दूर हो जायेंगे।
शब्दार्थ――कलपै=कलपना, दुखित होना।
पद गाये लै लीन ह्वै, कटी न संसय पास।
सबै पिछोड़े थोथरे, एक निनां बेसास्॥१९॥
सन्दर्भ――विश्वास के बिना सब सूना है।
भावार्थ――लीन होकर पद, साखियों का गान करते रहे, परन्तु सशय के पास में मन बंधा रहे। एक विश्वास के बिना समस्त साधना व्यर्थ हो गई।
शब्दार्थ――थोथरे=खाली।
गाँवण ही मैं रोज है, रोवण ही मैं राग।
इक वैरागी ग्रिह मैं, इक गृही मैं बैराग॥२०॥