यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५४]
[कबीर की साखी
 


शब्दार्थ—गाठड़ी = पोटली।

राम नाम सूँ दिल मिली, जन हम पड़ी बिराइ।
मोहि भरोसा इष्ट का ,बंदा नरकि न जाइ॥११॥

सन्दर्भ—जब से राम नाम से अनुराग स्थापित हुआ है तब से संसार भूल गया।

भावार्थ—राम नाम से अनुराग हो जाने पर अब तो संसार से विराग हो गया है। अव मुझे ब्रह्म का भरोसा हो गया है अब मैं नरक नहीं जाऊँगा।

शब्दार्थ—विराई = विराग।

कबीर तूँ काहे डरै, सिर परि हरि का हाथ।
हरती चढ़ि नहीं डोलिए ,कूकर भुसैं जु लाष॥१२॥

सन्दर्भ—ब्रह्म की शरण में जाकर तू अभय है।

भावार्थ—हे प्राणी! तेरे सिर पर ईश्वर का वरद हस्त है, तू क्यों विचलित होता है। क्या कुत्तों के भौंकने के भय से तू हाथी पर चढ़ना छोड़ देगा।

शब्दार्थ—कूकर = कुत्ता। भुसैं = भौंके।

मीठा खांण मधूकरी, भाँति-भाँति कौ नाज।
दावा किसही का नहीं, बिन विलाइति बड़ राज॥१३॥

सन्दर्भ—भिक्षार्जीत अन्न मधुरान्न है।

भावार्थ—भिक्षा में प्राप्त अन्न विविधता पूर्ण और मधुर होता है। उस पर किसी एक का अधिकार नहीं है, और उसका भोग करने वाला राजा से भी बड़ा होता है।

शब्दार्थ—दावा = अधिकार।

मांनि महातम प्रेम रस, गरवा तण गुखा नेह।
ऐ सबहीं अह लागया जबहीं कह्या कुछ देह॥१४॥

संदर्भ—माँगने से महत्व घटता है।

भावार्थ—मान, माहात्म्य प्रेम, गर्व गुण और स्नेह ये सब तभी समाप्त हो जाते है जब मनुष्य कुछ याचना करता है।

शब्दार्थ—महातम = महात्म्य।

मांगण मरण समान है, बिरला बंचै कोइ।
कहै कबीर रघूनाथ सूँ, मतिर मँगावै मोहि॥१५॥

सन्दर्भ—वासना करना मृत्यु के समान है।