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३२. सारग्राही कौ अङ्ग

पीर रूप हरि नांव है, नीर आन व्यौहार।
हंस रूप कोई साध है, तत का जांनण हार॥१॥

सन्दर्भ—हंस रूपी साधु सार-तत्व के ज्ञाता होते हैं।

भावार्थ—दूध एवं जल के सदृश ईश्वर का नाम सांसारिक माया एक दूसरे में मिले हुए है। हंस रूपी साधु ही इस सार तत्व के ज्ञाता होते हैं। और दूध एवं जल को अलग-अलग करके उसे पहचान लेते हैं। और क्षीर रूप ईश्वर के नाम को ग्रहण कर लेते हैं, माया रूपी जल को त्याग देते हैं।

शब्दार्थ—पीर = क्षीर। नाँव = नाम। आन = अन्य। तत = तत्व।

कबीर सापत को नहीं, सबै बैशनों जांणि।
जा मुखि, रांम न उचरै, ताही तन की हांणि॥२॥

सन्दर्भ—समस्त प्राणी वैष्णव ही है।

भावार्थ—कबीर दास जी का कथन है कि शाक्त कोई नहीं है, सभी को वैष्णव जानना चाहिए अर्थात् सभी वैष्णव है परन्तु जिसके मुख से राम नाम उच्चरित नहीं होता है, उसी का नाश होता है।

शब्दार्थ—ऊचरै = उच्चरित होना। सपित = शाक्त।

कबीर औगुंण नां गहै, गुंण ही कौं ले बीनि।
घट घट महु के मधुप ज्यूं पर आत्म ले चीन्हि॥३॥

सन्दर्भ—गुणों को हो ग्रहण करना चाहिए।

भावार्थ—कबीर दास कहते हैं कि दूसरों के अवगुणों को ओर ध्यान नहीं देना चाहिए तथा उसके गुणों को चुन करके ग्रहण कर लेना चाहिए। जिस प्रकार मधुमक्खियाँ विविध सुमनों से मधु संचय करती है उसी प्रकार दूसरों के सद्गुणों को परमात्मा का रूप समझकर अपना लेना चाहिए।

शब्दार्थ—औगुण = अवगुण।

वसुधा वन बहु भांति है, फूल्यौ फल्यों अगाध।
मिष्ट सुवास कबीर गहि, विषम कहै किहि साध॥४॥५४०॥

सन्दर्भ—पृथ्वी विविधता से मुक्त है, उसमें से सार तत्व का चयन कर लेना चाहिए।