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[कबीर की साखी
 

 

शव्दार्थ――हरिजन=ईश्वर भक्त। मेती=से। रुपरणा=रुष्ट होगा।संसारी=समार मे। सू=मे। हेत=हित या प्रेम। ते=वे

मारी मरू कुसग की, केला कांठै वेरि।
वो हालै वो चीरिये, साषित संग न बेरि॥४॥

प्रसंग――कुसंगति मे पड़कर मानव की वही गति होती है, जो बेर के पास वाले केले के वृक्ष की हुई।

भावार्थ――आत्मा परमात्मा से कह रही है, कि मैं कुसंगति की मार से मृतप्राय हुई जा रही हूँ। केले के वृक्ष के समीप बेर का काटे से पूर्ण वृक्ष है और वह अपनी कटुता के कारण प्रेम से अपनी ओर आने वाले वृक्ष को चीरता जा रहा है। केले के वृक्ष के सदृश ही मेरी दशा है। इसी कारण है परमात्मा तुम वेर के सदृश कटु शाक्तों के संग से मेरी रक्षा करो।

शब्दार्थ――मारी=मार से। मरी मृतप्राय। कुसंग=कुसंगति। केला= कदली वृक्ष।

मेर निसांणी मीच की, कुसंगति ही काल।
कबीर कहै रे प्रांणियां, बाँणी ब्रह्म सॅभाल॥

प्रसंग――कुसंगति ही काल है अतः कुसंगति का परित्याग कर देना चाहिए।

भावार्थ――मेरा अहकार या अपनत्व की भावना ही मेरी मृत्यु का चिन्ह है यथा मैं जिन कुसंगो मे पड़ा हुआ हूँ वह स्पष्ट रूप से मेरी मृत्यु है इसी कारण कबीर दास जी कहते हैं कि हे प्राणियो तुम अपनी वाणी को संभालकर ईश्वर की आराधना एवं भजन मे लीन हो जाओ।

शब्दार्थ――मेरा=अह की भावना। निसाणी=चिन्ह। मीच=मृत्यु। काल मृत्यु। संभाल=सुरक्षित कर।

माषी गुड़ मैं गडि रही, पंष रही लपटाई।
ताली पीटै सिरि धुनै, मीठै वेई माइ॥६॥

प्रसंग――माया में लिप्त प्राणी की वही गति होती है जो गुड मे चिपटी हुई मक्खी की होती है।

भावार्थ――जिस प्रकार मक्खी गुड मे चिपक जाती है और उसके पख भी उसमे चिपक जाते हैं उम समय वह हाँथ पैर चलाती है, सिर घुनती है। परन्तु वह मिठास ही माया है। जहाँ सांसारिक मधुरता है वही ही संसारी माया है। इस माया से दूर रहे।