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२५. कुसंगति कौ अंग

निरमल बूंद अकास की, पड़ गई भोमि बिकार।
मूल बिनंठा मांनवी, बिन संगति भठछार॥१॥

प्रसंग――कुसंगति मे पडकर पवित्र आत्मा विकृत हो गई।

भावार्थ――आकाश की निर्मल जल की बूंद पृथ्वी पर पडते ही गन्दी हो गई। इसी प्रकार मानव भी सत्संगति के अभाव मे भट्ठी की राख सदृश है और समूल नष्ट हो जाता है।

शब्दार्थ――निरमल=निर्मल। आकास=आकाश। विंनठा=विनष्ट। भट= भठ्ठी। छार=राख या क्षार।

मूरषि संगन कीजिए, लोहा जलि न तिराइ।
कदली सीप भवंग मुषी, एक बूंद तिहॅ भाई॥२॥

प्रसंग――मूर्ख व्यक्ति का संग कभी नहीं करना चाहिए। अज्ञानी व्यक्ति कभी सात्विकता से पूर्ण नहीं हो सकता है।

भावार्थ――मूर्ख का साथ न कोजिए। लोहे के समान वह जड तथा भारी है। भव जल मे तैर नहीं सकता है। संगीत का प्रभाव यह है कि आकाश से गिरी हुई एक बूंद केला, सीप तथा सर्प का संसर्ग प्राप्त करके विविध गतियों को प्राप्त करती है।

शब्दार्थ――मूरषि=मूर्ख। सग=संगीत। जलि=जल मे। तिराइ=तैरता है। कदली=केला। भुषी=मुख।

हरिजन सेती रूसणां, ससारी सू हेत।
ते नर कदे न नीपजै, ज्यू कालर का खेत॥३॥

प्रसंग――हरिभक्तो से द्वेष रखने वाला मानव कभी भी उन्नति नहीं कर सकता है।

भावार्थ――वे व्यक्ति जो ईश्वर से प्रेम करने वाले व्यक्तियों से (हरिजनो) से प्रेम नही करते हैं रुष्ट रहते हैं, द्वेष करते हैं तथा सांसारिक प्राणियो से स्नेह करते हैं। ऐसे पुरुषो का कभी उत्थान नहीं हो पाता है। वे उसी प्रकार हैं जिस प्रकार ऊसर भूमि मे पडा हुआा बीज।