कबीर लज्या लोक की, सुमिरै नाँही साच।
जानि बुझि कंचन तजै, काठा पकड़ै काच॥१५॥
सन्दर्भ――कुरीतियो का पालन किसी भी प्रकार श्रेयष्कर नहीं है।
भावार्थ――कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य लोक लज्जा के भय से सत्य का विस्मरण कर कुरीतियों का पालन करता है। ऐसा व्यक्ति जान-बूझ करके सोना रूपी परमात्मा का त्याग कर काँच रूपी असत्य को अपना रहा है।
शब्दार्थ――लज्या=लज्जा।
कबीर जिनि जिनि जाँणियाँ, करता केवल सार।
सो प्राँणी काहै चलै, झूठे जग की लार॥१६॥
संदर्भ――ईश्वर के अस्तित्व को समझ लेने के बाद मिथ्याचरण नहीं होते हैं।
भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि जिन-जिन लोगो ने यह समझ लिया है कि इस सृष्टि का कर्ता ब्रह्म ही सब कुछ है वह असली तत्व है वे व्यक्ति मोहान्धकार मे पडकर सांसारिक मिथ्या मार्ग पर आचरण नहीं करते हैं।
शव्दार्थ――जिनि जिनि=जिन्होने। करता=कर्ता। लार पंक्ति।
झूठे कौ झूठा मिलै, दूणाँ बधै सनेह।
झूठे कूॅ सांचा मिलै, तबही टूढै नेह॥१७॥४२५॥
संदर्भ――मैत्री समान गुणो मे होती है।
भावार्थ――यदि झूठे (ईश्वर विमुख) व्यक्ति से झूठा (ईश्वर विमुख) व्यक्ति मिल जाता है परिचय बढ़ता है तो स्नेह दूना बढ़ जाता है मैनी बढ जाती है। और यदि ईश्वर विमुख से ईश्वर-प्रेमी मिल जाता है तो स्नेह सम्बन्ध टूट जाता है। मैत्री समाप्त हो जाती है।
शब्दार्थ――दूणां=दुगुना। बधै=बढ़ै।