सन्दर्भ―पर नारी-संसर्ग परिणाम मे दुखदायक होता है।
भावार्थ―दूसरे की पत्नी और सुन्दर स्त्री से कोई विरले व्यक्ति ही बच पाते हैं स्त्री के संसर्ग से प्राप्त सुख खाँड़ के समान मधुर लगता है किन्तु अन्त मे यह विष के समान भयानक प्रभाव वाला होता है।
विशेष―तुलसी ने भी लिखा है कि―
‘नारि नयन सर जाहि न लागा।"
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“सो नर तुम्ह समान रघुराया।”
――मानस
शव्दार्थ―विरला=कोई।
पर नारी कै राचणैं, औगुण है गुण नांहि।
षार समंद मैं मछला, केता बहि बहि जांहिं॥५॥
सन्दर्भ―लोग वासना का परित्याग न कर पाने के कारण पर स्त्री गामी हो जाते हैं जब कि इससे हानि ही हानि होती है।
भावार्थ―पर स्त्री के प्रेम में अवगुण ही अवगुण है गुण एक भी नहीं इस स्त्री के आकर्षण रूपी समुद्र मे न जाने कितनी आत्मा रूपी मछलियाँ वह जाती हैं।
शब्दार्थ―राचणैं=प्रेम मे। षार=खारी नमकीत।
पर नारी को राचणौं, जिसी ल्हसरण की षाँनि।
षूणै बैसि रषाइए, परगट होइ दिवानि॥६॥
सन्दर्भ―पर स्त्री प्रेम को छिपाया नहीं जा सकता है।
भावार्थ―पर स्त्री से प्रेम करना लहसुन के खाने के समान है। जिस प्रकार लहसुन खाने के बाद सुगंध से उसका पता अवश्य चल जाता है उसी प्रकार पर स्त्री से किए गए प्रेम का भी पता चल जाता है वह छिपता नही। अत्यन्त सतर्कता पूर्वक कोने मे बैठकर भी यह छिपाया नहीं जा सकता है।
शब्बार्थ―षाँनि=खाना। पूणैं=कोने मे। वैसि=बैठकर। रषाइए=रखवाली कीजिए।
नर नारी सब नरक है, जब लगि देह सकाम।
कहै कबीर ते राँम के, जे सुमिरै निहकांम॥७॥
सन्दर्भ―सांसारिक कामनाओ की इच्छा न करके भगवान का भजन ही सच्चा भजन है।