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[कबीर की साखी
 

 

शब्दार्थ―स्वांन=श्वान=कुत्ता।

पद गाएँ मन हरषियाॅ, साषी कहयाँ अनन्द।
सोतत नांव न जांणियाँ, गल में पड़िया फंध॥४॥

सन्दर्भ―ब्रह्म के पूर्ण रहस्य को समझे बिना जीव को मुक्ति नही मिल पाती है।

भावार्थ―मनुष्यो को ईश्वर भक्ति के पद गाने से मन मे प्रसन्नता होती है और साखियो को कहने से आनन्द मिलता है ऐसा लगता है कि उन्होने ईश्वर की सम्पूर्ण भक्ति कर ली है। किन्तु बिना उस परम तत्व के रहस्य को जाने और ध्यान किए उनकी मुक्ति नहीं हो पाती है और वे अन्त तक काल-पाश मे ही पड़े रहते हैं।

शब्दार्थ―तत=तत्व। फंध=फन्दा।

करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तूंड।
जांणैं बूझै कुछ नहीं, यौं ही आँधाँ रुड॥५॥३७३॥

सन्दर्भ―बाह्य रूप से ही राम नाम की रट लगाने से कुछ नही होता जब तक हृदय से उसकी भक्ति नहीं होती है।

भावार्थ―जो व्यक्ति राम नाम का कीर्तन, बिना उसके महत्व को समझे हुए मुंह उठा-उठा कर ऊंचे स्वर से करते हैं वह वास्तविकता तो कुछ नही जानते-बूझते हैं अंधे रुंड के समान बिना सिर के शरीर के नीचे के भाँग के समान इधर-उधर डोलते हैं।

 

 

१९. कथणीं बिना करणी कौ अंग

मैं जांन्यू पढ़िवौ भलौ, पढ़िया थैं भली जोग।
रांम नांम सू प्रीति करि, भलभल नींदौ लोग॥१॥

सन्दर्भ―जीव को प्रभु-भक्ति मे ही प्रवृत्त होना चाहिए।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि इस बात को मै भली-भांति जानता है कि वेद शास्त्रों का पढना अच्छा काम है किन्तु उससे भी अच्छा योग साधना करना