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[कबीर की साखी
 

 

भावार्थ―शकर की पुरी काशी में निवास करते हुए और गंगाजी का निर्मल जल पीते हुए लोग मुक्ति की आशा करते हैं किंतु कबीरदास जी इस प्रकार कहते हैं, बिना हरि नाम के स्मरण के जीव को मुक्ति मिलना असंभव है।

शब्दार्थ―कासी काठैं=काशी में निवास करते हुए।

कबीर इस संसार कौं; समझाऊॅ कै बार।
पूँछ ज पकड़ै भेद की, उतर्या चाहै पार॥२०॥

सन्दर्भ―माया का आश्रय ग्रहण कर कही जीव संसार―सागर को पार उतर सकता है?

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं इस संसार के जीवों को कितनी बार समझाऊं कि माया का आश्रय ग्रहरण कर भवसागर को पार उतरने की चाह रखना बिलकुल व्यर्थ है।

शब्दार्थ―भेद=माय।

कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूॅ मैं ध्रंम।
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखे भ्रंम॥२१॥

सन्दर्भ―वाह्याचरण से कहीं मुक्ति मिलती है?

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि लोग अपने मन मे बहुत प्रसन्न रहते हैं कि मैं धर्मं कर रहा हूँ यद्यपि वे वाह्याचरण को ही धर्म के अंतर्गत मानते हैं और उसी से मुक्ति की कामना करते हैं। वह भ्रम का निवारण कर इस बात पर विचार नहीं करता कि अपने सिर पर करोड़ो कुकर्मों का भार लेकर चल रहा है फिर मुक्ति मिले तो कैसे?

शब्दार्थ―ध्रंम=धर्म। क्रम=कर्म। चेति=चेत कर, सावधान होकर भ्रंम=भ्रम।

मोर तोर की जेवड़ी, वलि वन्ध्या संसार।
कांसि कहूँ वा सुत कलित, दाझण बारम्बार॥२२॥३६८॥

संदर्भ―अपने और पराए की भावना के कारण जीव को संसार से मुक्ति नहीं मिलती।

भावार्थ―मेरे तेरे की भावना रूपी रस्सी मे बलि के बक्ड़े के समान सारा संसार बंधा हुआ है। पुत्र एव स्त्री रूपी काम एवं कंडुआ के कारण जीवात्मा को आवागमन से मुक्ति नहीं मिल पाती है। वह बार-बार आवागमन चक्र मे पढ़ कर संसार तापो में दग्ध होता रहता है।