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चारण कौ अंग]
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संदर्भ―जीवको जब ज्ञान प्राप्त हो जाता है तब उसकी संपूर्ण इच्छाएं नष्ट हो जाती हैं।

भावार्थ―ताराओं के मध्य मे आकाश मंडल में विराजमान होकर चन्द्रमा ऐश्वर्य को प्राप्त करता है किन्तु सूर्य के उदय होने पर वह तारो के साथ अस्त हो जाता है ठीक उसी प्रकार जीव अज्ञानान्वकार में पड़ा रहता है ज्ञान के उदय होने पर संपूर्ण इच्छाएं नष्ट हो जाती हैं।

शब्दार्थ―स्यूं=साथ।

देषण के सबको भले, जिसे सीत के कोट।
रवि कै उदै न दीसहीं, बॅधै न जल की पोट॥१७॥

सन्दर्भ―जीव का अज्ञान ज्ञान रूपी सूर्य के उदय हो जाने से भाग जाता है।

भावार्थ―जिस प्रकार शीत काल मे बरफ के किले देखने मे अच्छे लगते हैं उसी प्रकार वाह्य वेशभूषा से युक्त पंडित भी देखने मे सबको अच्छे लगते हैं किन्तु जिस प्रकार सूर्य उदय होने पर उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है और उस जल की पोटली भी नहीं बाँधी जा सकती उसी प्रकार वास्तविक ज्ञान प्राप्त होने पर अज्ञानी पडितो और सन्यासियो का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है।

शब्दार्थ―देषण=देखने मे। दीसही=दिखाई देते हैं। पोट=गठरी

तीरथ करि करि जग मुवा, डूॅघै पांणीं न्हाइ।
रामहि राम जपतडां, काल घसीट्या जाइ॥१८॥

सन्दर्भ―मुक्ति उपासना के वाह्याडम्बरों से नहीं मिलती उसके लिए हृदय से प्रभु-भक्ति की आवश्यकता होती है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि अनेकानेक प्रकार के तीर्थों के दर्शन करके और गंदले पानी में स्नान करके लोग मर जाते हैं। मुंह से राम नाम का उच्चारण करते हुए भी मृत्यु उन्हें घसीट ले जाती है क्योकि राम नाम उच्चारण ही होना है हृदय से उसका जप नहीं होता है।

शब्दार्थ―डूंघै=गदा। जपतडाॅ=जपता हुआ।

कासी कांठैं घर करैं, पीवै निर्मल नीर।
मुकति नहीं हरि नाव बिन हौं कहै दास कबीर॥१६॥

सन्दर्भ―ईश्वर के नाम-स्मरण के बिना मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है।

क० सा० फा०―१३