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चांणक कौ अंग]
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सन्दर्भ―अहंकार के कारण जीव किसी लोक को भली भांति सभाल नही पाता है।

भावार्थ―सांसारिक जीव अपनी उदरपूर्ति के लिए रातदिन संसार मे भटक-भटक कर याचना किया करते हैं किन्तु उनके अदर जो स्वामीपन की भावना का अहंकार होता है उसके कारण उनका एक भी काम नहीं बन पाता है न यह लोक ही सुख कर हो पाता है और परलोक मे ही मुक्ति का मार्ग बन पाता है।

शब्दार्थ―स्वामी पणैं=स्वामीपना। सर्या = सिद्ध हुआ, बना।

स्वामी हूॅणाॅ सोहरा, दोद्धा हूॅणाँ दास।
गाडर ऑणीं ऊन कूॅ, बाँधी चरै कपास॥३॥

सन्दर्भ―ईश्वर भक्त बनना अत्यन्त कठिन है।

भावार्थ―इस संसार मे स्वामी बनना तो सरल है कोई भी व्यक्ति अपने अहंकार को प्रदर्शित कर कुछ व्यक्तियो पर अपना स्वामित्व प्रदर्शित कर सकता है किन्तु परमात्मा का भक्त बनना अत्यन्त कठिन है। जिस प्रकार भेड को ऊन प्राप्ति के लिए पाला जाता है किन्तु वह घर आकर कपास को भी चर लेती है ठीक उसी प्रकार ईश्वर भक्त मे यदि अह्म की भावना आ जाती है तो उसका परलोक और यह लोक दोनो नष्ट हो जाते हैं। शब्दार्थ―सोहरा=साल। दोद्धा=दुर्लंभ। गाडर=भेड।

स्वामी हुवासीत का, पैकाकार पचास।
राम नाम काँठै रहया, करै सिषाँ की आस॥४॥

सन्दर्भ―सांसारिक व्यक्ति दम्भ मे ही लिप्त रहते हैं।

भावार्थ―हे जीवात्मा। तू कण भर सपत्ति का स्वामी होकर भी दभ मे आकर पचासो सेवक बना रखे हैं हृदय से तूने कभी राम का नाम लिया ही नहीं केवल जीभ से ही राम नाम का उच्चारण करता रहा और अबतू शिष्य बनाने की आशा करता है।

शब्दार्थ―सीत=दाना, कण। पैकाकार=सेवक। काठै=कठ।

कबीर तष्टा टोकणीं, लीयै फिरै सुभाइ।
राम नाम चीन्हैं नहीं, पीतलि टी कै चाइ॥५॥

सन्दर्भ―जीव उदर पूर्ति के लिए ही भ्रमण करता रहता है राम का नाम नही लेता है। उसी के प्रति सकेत है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि तू अपने स्वभाव के अनुसार तसला और टोकनी लिए हुए इधर-उधर घूमकर खाने पीने का प्रवन्ध करता रहता है। तू