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माया कौ अंग]
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कबीर माया डाकणीं, सब किस ही कौं खाइ।
दाँत उपाड़ौं पापणीं, जे सन्तौं नेड़ी जाइ॥२१॥

सन्दर्भ―सन्तो के पास माया जाती है तो उसको नष्ट करने का प्रयास किया जाता है।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि यह माया अत्यन्त पिशाचिनी है यह सभी को खाती रहती हैं किन्तु यदि यह सन्तो――साधु स्वभाव वाले व्यक्तियो―के पास जाकर फटकी तो मैं इसके दाँत ही उखाड डालूंगा फिर यह खायेगी कैसे?

शब्दार्थ―डाकणी=पिशाचिनी। उपाडौ=उखाडू। नेडी = नजदीक

नलनी सायर घर किया, दौं लागी बहुतेणि।
जलही माहें जलि मुई, पूरब जनम लिषेणि॥२२॥

सन्दर्भ―पूर्व जन्म के दुष्कृत्यों के कारण आत्मा को नाता प्रकार के कष्ट सहने पड़ते हैं।

भावार्थ―आत्मा रूपी कमलिनी ने इस संसार सागर मे अपना घर बनाया किन्तु यही अनेकानेक दुखो की दावाग्नि उस कमलिनी को जलाने लगी। और इस प्रकार यह आत्मा रूपी कमलिनी माया रूपी जल मे ही जलकर नष्ट हो गयी। यह सब पूर्व-जन्म के कर्मों का फल था।

कबीर गुण की बादली, तीतर बानी छाँहि।
बाहरि रहे ते ऊबरे, भीगे मन्दिर मांहि॥२३॥

सन्दर्भ―माया के प्रभाव से मुक्त व्यक्ति ही आवागमन से मुक्त हो हो पाते हैं।

भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं सात्विक, राजस और तामस इन तीनो के सम्मिश्ररण से बनी हुई माया की छाया रग तीतर के पखो के समान बहुरगी होता है। जो इस माया की छाया से बाहर रहते हैं वे तो मुक्त हो जाते हैं और जो माया के प्रभाव से हो आ जाते हैं तो वे माया के प्रभाव से भीगते ही रहते हैं।

विशेष―(१) विरोधाभास अलकार।

शब्दार्थ―तीतरवानी=तीतरवर्णी।

कबीर माया मोह को, भई ॲधारी लोइ।
जे सूते ते मुसि लिये, रहे बसत कूॅ रोइ॥२॥

सन्दर्भ―माया मोह मे पडे हुए व्यक्ति मुक्ति नही प्राप्त कर पाते हैं।