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माया कौ अंग]
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कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खाँण।
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती माँड॥७॥

सन्दर्भ―सतगुरु की कृपा से मनुष्य माया के प्रभाव से बच पाता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि माया खाँड के समान मीठी और मोहक है। सबको अपनी ओर आकर्षित करने वाली है। सतगुरु की कृपा हो गई इसलिए मैं इसकी चपेट से बच गया हूँ अन्यथा तो यह मुझे बर्बाद करके ही दम लेती।

शब्दार्थ—भाँड=अत्यन्त बीच, निकृष्ट।

कबीर माया मोहनी, सब जग घाल्या घाँणि।
कोई एक जन ऊबरै, जिन तोड़ी कुल की कांणि॥८॥

सन्दर्भ―जो व्यक्ति माया की ओर आकर्षित नहीं होता, वह मुक्ति प्राप्त कर लेता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि माया इतनी जादूगरनी है कि सम्पूर्ण संसार को अपने फंदे मे डालकर तेवो को घानी के समान पीस डालती है। कोई बिरला व्यक्ति हो इसके प्रभाव से बच सकता है जो सांसारिक मान-मर्यादाओ को छोडकर परम्पराओ का परित्याग कर देते हैं।

शब्दार्थ—घाल्या=मारा। कुन की कांणि=कुन की मर्यादा, जीवात्मा की परम्पराओ को तोड़ना।

कबीर माया मोहनी, माँगि मिलै न हाथि।
मनह उतारी झूठ करि, तब लागो डोलै साथि॥९॥

सन्दर्भ—माया मोहक होते हुए भो ईश्वर भक्तो के पीछे दौड़ती है। इसके परित्याग मे ही मंगल है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि माया ऐसी मोहक है कि जो इसको हाथ फैलाकर माँगते हैं उनको यह नहीं प्राप्त होती है किन्तु जिन भक्तो और साधको ने इसको मिथ्या समझ कर अपने मन से निकाल दिना है उनके पीछे यह डोलती रहती है।

शब्दार्थ—मनह=मन से।

माया दासी सन्त की, ऊँभी देइ असीस।
बिलंसी अरु लातौं छड़ी, सुमिरि सुमिरि जगदीस॥१०॥

सदर्भ―माया सन्तो की तो सेवा करती है और अन्य व्यक्तियों को दुख देती है।