विशेष―महात्मा तुलसीदास ने पंचतत्वो की संख्या इस प्रकार गिनाई है―
'छति जल पावक गगन समीरा।
पच रचित अति अधम सरीरा॥
मानस—किष्किन्धा काण्ड।
१४. सूषिम मारग कौ अंग
कौण देस कहाँ आइया, कहु क्यूॅ जांणयां जाई।
उहु मार्ग पावैं नहीं, भूलि पड़े इस मांहि॥१॥
सन्दर्भ―जीव ससार मे भ्रमित होता हुआ भटकता रहता है।
भावार्थ―आत्मा किसी प्रदेश का निवासी है और कहाँ आकर बस गया है कहो इस तत्व को कैसे जाना जा सकता है? जीव को ब्रह्म के पास जाने का मार्ग नहीं मिल पाता इसलिए वह भ्रम मे पडा हुआ इस संसार मे भटक रहा है।
शव्दार्थ—उहु मार्गं=वह मार्गं, ब्रह्म प्राप्ति का मार्गं।
उतीथै कोइ न आवई, जाकूँ बूॅझौं धाइ।
इतथै सबै पठाइये, भार लदा लदाइ॥२॥
सन्दर्भ―ब्रह्म के पास जीव जाकर लौट नही पाता है।
भावार्थ―कबीर दास जी कहते हैं कि ब्रह्म के पास पहुँच कर कोई वहाँ से लौटता नही है जिससे जाकर मैं पूछ सकूँ कि ब्रह्म के पास जाने का कौन सा मार्ग है? क्या तरीका है? इस संसार से हो कुकर्मों का बोझा लाद-लाद कर सभी प्राणी जाते हैं।
शव्दार्थ―उती थैं=उधर से। इतीथै=इधर से।
सबकूॅ बूझत मैं फिरौं, रहण कहै नहीं कोइ।
प्रीति न जोड़ी राम सूॅ, रहरण कहाँ थैं होइ॥३॥
सन्दर्भ―जीव की अपनी स्थिति अज्ञात रहती है।