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मन कौ अंग]
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संदर्भ―मन सयमित होने पर भी वासना के अवशेष से विकार ग्रस्त हो जाता है।

भावार्थ―मन रूपी मछली को काट कूटकर किसी प्रकार विषय वासना से रहित कर अपने वश मे करके शून्य रूपी छीके मे रखा था किंतु इतने पर भी उसमे वासना का कोई अक्षर अवशिष्ट रह गया था इसलिए वह मन रूपी मछली साधना के छीके से पुनः वासना के जल मे आकर गिर पड़ी। मन फिर विषयो मे आसक्त हो गया।

शब्दार्थ―मछली=मन। दह=तालाव, ससार पक।

कबीर मन पंषी भया; बहुतक चढ़्या अकास।
उहाँ ही ते गिरि पड़्या; मन माया के पास॥२५॥

संदर्भ―मन रूपी पक्षी माया के प्रभाव से नीचे गिर पड़ता है।

भावार्थ―ईश्वर को प्राप्त करने के लिए कबीरदास कहते हैं कि मेरा मन पक्षी की भाँति आकाश तक शून्य तक विचरण करने गया था किन्तु माया के प्रभाव से जब वह वहाँ से गिरा तो बीच मे कही रुका हो नही ठीक नीचे आकर माया के पास ही गिरा।

विशेष―रूपक अलंकार।

भगति दुबारा संकड़ा, राई दुसवैं भाइ।
मन तो मैंगल ह्वै रहयो; क्यूॅ करि सकै समाइ॥२६॥

संदर्भ―भक्ति के सकीर्ण मार्ग मे मन रूपी हाथी कैसे जा सकता है?

भावार्थ―भक्ति के मार्ग का दरवाजा इतना सकीर्ण है कि वह राई के दशमाश के बराबर है और उसमे प्रवेश करने वाला मन मदमस्त हाथी के समान है फिर वह उस भक्ति के मार्ग में प्रवेश कैसे पा सकता है?

शब्दार्थ―मैंगल=मद मस्त हाथी।

करता था तौ क्यूॅ रहया, अब करि क्यूॅ पछताय।
बोवै पेड़ बबूल का, अंब कहाँ ते खाय॥२७॥

संदर्भ―कर्मों के अनुसार ही फल की प्राप्ति होती है।

भावार्थ―हे जीव! कर्म करते समय तुझे इस बात का बोध क्यो नही हुआ कि बुरे कर्म नहीं करने चाहिए इनका परिणाम बुरा होगा और यदि अब बुरे कर्म किए ही हैं तो फिर पछताने से क्या लाभ? उसके परिणाम तो भोगने ही पड़ेंगे। यदि तूने कुकर्मं रूपी बबूल के वृक्ष लगाए हैं तो खाने के लिए मीठे आम कहाँ से प्राप्त हो सकते हैं।