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[कबीर की साखी
 

 

शव्दार्थ―पुन्दरी=आत्मा।

कागद केरो नाॅव री, पांणी केरी गंग।
कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग॥२१॥

संदर्भ―संसार-सरिता को पार करने के लिए संयम की नौका चाहिए।

भावार्थ―मनुष्य का शरीर कागज की नाव के समान है और यह ससाय रूपी सरिता माया जल से परिपूर्ण है। कबीरदास जी कहते हैं कि इस अगाध सरिता को इस कागज की क्षणिक नौका से कैसे पार किया जा सकता है फिर साथ मे पाँच इन्द्रियों के रूप मे पंच चोर भी हैं जो अवसर देखते ही अच्छे कर्मों को चोरी भी कर लेते हैं।

शब्दार्थ―गंग = गगां, सरिता। पंच=पंचेन्द्रियो।

कबीर यहु मन कत गया, जो मन होता काल्हि।
डूंगरि बूठा मेह ज्यूँ, गया, निबांणां चालि॥२२॥

संदर्भ―मन ब्रह्म की ओर उन्मुख होकर भी माया भिभूत हो जाता है।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि जो मेरा निर्मल मन कल (भूतकाल) या वह आज कहाँ चला गया मन की वह निर्मलता कहाँ चली गयी जिस प्रकार टीले पर हुई वर्षा क्षण भर के लिए टीले पर रुककर नीचे की ओर बह जाती है उसी प्रकार मन के ऊपर संतो के सदुपदेशो का प्रभाव क्षण भर के लिए तो हुआ किंतु दूसरे हो क्षरण वह उपदेश मन से निकल गए और मन फिर विषयासक्त हो गया।

विशेष–दृष्टात अलंकार।

शब्दार्थ—डूगरि=टोला। निबाँणाँ चालि=नीचे को ओर चल कर।

मृतक कूॅ धीजौं नहीं, मेरा मन बीहै।
बाजै बाव बिकार की, भी मूवा जीवै॥२३॥

संदर्भ―मन मरे हुए आदमी की भाँति मरी हुई अवस्था में भी जीवित रहता है।

भावार्थ―साधक को अपने मन पर पूर्णरूपेण विश्वास नहीं है वह कहता है कि जिस प्रकार मनुष्य मर जाता है उसी प्रकार मैंने अपने मन को विषयो की ओर से मृतक तुल्य बना दिया है किन्तु फिर भी यदि इसके पास विकारो को दुदंभी फिर से वजने लगे तो जीवित व्यक्ति के समान पुनः पाप कर्म करने लगता है। शब्दार्थ―वाव=दुदुंभी। विकार=सासारिक विषय। मूवा=मृतक।

काटी कूटी मछली छीकै धरी चहोड़ि।
कोई एक अपिर मन बस्या; दह में पड़ी बहोड़॥२४॥