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१३. मन कौ अङ्ग

मन कै मते न चालिए, छाँड़ि जीव की बाँणिं।
ताकू केरे सूत ज्यूँ, उलटि अपूठा आंणिं॥१॥

सन्दर्भ―जीव ब्रह्म का ही अंग है उसे संसार से हटाकर ब्रह्म मे ही लगा देना चाहिए।

भावार्थ―कबीरदास जी कहते हैं कि हे जीव! तू मन की इच्छानुसार न चल। मन की विषय वासना मे लिप्त रहने की आदत छुडा दे। जिस प्रकार तकुआ का सूत उससे निकाल कर फिर उसी से लपेट दिया जाता है उसी प्रकार तू अपने मन को संसार से विरक्त करके ब्रह्मा से लगा दे।

शब्दार्थ―बाँणि=आदत, स्वभाव। अपूठा= कच्चा।

चिंता चिति निबारिये, फिरि बूझिये न कोइ।
इंद्री पसर मिटाइये, सहजि मिलैगा सोइ॥२॥

संदर्भ―सासारिक चिन्ताओ को छोड़ देने से परमात्मा स्वयं ही प्राप्त हो जाता है।

भावार्थ―अपने मन से संसार की नाना प्रकार की चिन्ताओ को त्याग देने पर फिर किसी की भी परवाह नही रहती है। इन्द्रियो से उत्पन्न विषय वासना रूपी सुख के फैलाव को समाप्त कर देने पर वह परमात्मा बड़ी ही सरलता से प्राप्त हो जाता है।

शव्दार्थ―चिन्ता=सासारिक चिन्ताएँ। सहजि=आसानी से।

आसा का ईंधण करूॅ, मनसा करूॅ विभूति।
जोगी फेरी फिल करौ, यौं बिननाँ वै सूति॥३॥

सन्दर्भ―सत्कर्मों के द्वारा ही ब्रह्म को प्राप्त किया जा सकता है।

भावार्थ―आशा का परित्याग कर उसको ईंधन के रूप मे प्रयोग कर मनके अहंकार को जला कर भस्म कर दूँ और योगी बनकर संसार से विरक्त होकर परमात्मा की खोज मे इधर-उधर चक्कर काटता रहूँ। इस प्रकार अच्छे कर्मों रूपी सूत को कात करके ही परमात्मा की प्राप्ति सम्भव हो सकती है।

विशेष―रूपक अलंकार।