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चितावणी कौ अंग]
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चिड़ियों ने खा लिया। अब भी यदि मंगल चाहता है तो सावधान होकर प्रभु -भक्ति में प्रवृत्त होकर उसको थोड़ा बहुत बचा ले।

शब्दार्थ—रखवाले = रक्षक, गुरु। चिड़ियै = वासना या माया के पक्षी। आधा प्रधा = थोड़ा बहुत।

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी; केस जलै ज्यूँ घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास॥१६॥

सन्दर्भ—शरीर की क्षण भंगुरता देखकर कबीर को विरक्ति हो गयी है।

भावार्थ—कबीर दास जी कहते हैं कि मरणोपरान्त इस शरीर की हड्डियाँ लकड़ी की भाँति और केश घास की तरह चिंता के ऊपर जलते हैं। इस प्रकार समस्त शरीर को जलता हुआ देखकर कबीर दास यह समझकर कि इस जीवन में कुछ नहीं है इससे विरक्त हो गये।

कबीर मन्दिर ढहि पड़या, सैंट भई सैंबार।
कोइ चेजारा चिणि गया, मिल्या न दूजी बार॥१७॥

संदर्भ—शरीर के नष्ट होने पर इसका बनाने वाला कारीगर इसकी मरम्मत नहीं करता वह बेकार ही हो जाता है।

भावार्थ—कबीरदास जी कहते हैं कि सैकड़ों बार काम क्रोधादि रूपी चोरों ने इस शरीर रूपी मकान में सेंध लगाई है। जिसके कारण यह पूर्ण रूप से दह कर गिर गया है। इसको चुनकर बनाने वाला कारीगर एक बार तो बना गया किन्तु दुबारा बनाने के लिए वह नही मिला।

शब्दार्थ—चेजारा = चुनने वाला, राज।

कबीर देखत ढहि पड़या, ईंट भईं सैंवार।
करि चिजारा सौ प्रीतिड़ी, ज्यूं ढहै न दूजी बार॥१८॥

सन्दर्भ—ईश्वर से प्रेम करने पर मानव शरीर आयागमन से मुक्त होकर कमरता को प्राप्त होता है।

भावार्थ—कबीर दास जी रहते हैं कि शरीर रूपी भवन को प्रत्येक ईंट में लेप लगा दी गई है जिससे शिघिन होकर कर यह भवन उड़ गया है। इसलिए चिरन्तन प्रभु रूपी कारीगर से प्रेम कर जिसमें दूसरी बार वह शरीर रूपी भवन फिर न उड़ जाय। फिर न जाय।