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प्रस्तुत वैष्णव आन्दोलन की प्रेरणा और प्रयत्न से निराश हिन्दुओं में एक बार पुनः धार्मिक जाग्रति उत्पन्न हुई। समय-समय पर इस आन्दोलन के भी उपास्य देवों के स्वरूप में परिवर्तन होता रहा। फिर भी इसके मूल में एक भावना बराबर रही और वह भावना थी परब्रह्म के सर्वव्यापी एवं अन्तर्यामी स्वरूप की।

रामानन्द ने लोक-रक्षक 'राम' की प्रतिष्ठा की। रामानन्द की इस 'राम' भक्ति के महान् स्त्रोत्र से दो धाराये फूट निकली। प्रथम धारा थी 'राम' के सगुण रूप की, इस धारा में नाभादास, तुलसीदास आदि प्रतिभावान व्यक्ति हुए और द्वितीय धारा में 'राम' के निर्गुण रूप की उपासना हुई जिसके प्रचारक नामदेव, कबीर आदि संत हुए। इन सन्तो ने अपने सम्प्रदाय में योग की क्रियाओं को भी स्थान दिया पर सामान्य जनता ने इनके सरल उपदेशों को ग्रहण किया। इन सन्तो ने उपासना के लिए निर्माण 'ब्रह्म' का आश्रय ग्रहण किया और इस भावना ने जातीय, सांस्कृति तथा धार्मिक मतभेद के लिए अवशेष अवसर भी समाप्त कर दिये।

हिन्दू धर्म में वाह्य प्रभावों के अतिरिक्त दोष भी व्याप्त हो गये थे। धर्म के पवित्र रूप को वाह्याडम्बरों ने आच्छादित कर लिया। सद्विश्वावासों का स्थान अन्धविश्वासों ने ग्रहण कर लिया। अहिंसा, त्याग और सत्य का स्थान बलिदानों के रूप में हिंसा तथा ढोंग ने ले लिया। संक्षेप में कबीर के युग तक हिन्दू धर्म अनेक दोषों से पूर्ण था। साधना के स्थान पर बाह्याचार की प्रतिष्ठा हो रही थी। कबीर तथा अन्य कवियों ने इन दोषों की कडी़ आलोचना की है। उन्होंने अपने व्यङ्गवाणों के द्वारा तत्कालीन जनता की मनोवृत्ति और धर्म के अंधकारपूर्ण पक्ष का चित्रण किया है।

समाज में वाह्याडम्बर बढ़ रहे थे। जनता की अंध-विश्वासों पर अत्यधिक श्रद्धा थी। भूत-प्रेतों पर विश्वास की भावना का प्रसार जनता में हो रहा था। सामाजिक परिस्थिति संक्षेप में कबीर के समय में भारतीय समाज अनेक प्रकार के दोषों से युक्त था। कबीर ने जिस प्रकार धार्मिक विशृंखलाओं को दूर करने का प्रयत्न किया उसी प्रकार सामाजिक रूढ़ियाँ और दोषों को निकाल फेंकने के लिए प्रयत्न किया। समाज में व्याप्त हिन्दू, मुसलमानों की भेद भावना के विरोध में कबीर ने बार-बार समता और एकता का उपदेश दिया। कबीर ने तत्कालिन जनता को समझाया कि हिन्दू मुसलमान एक ही कर्ता की दो कृतियाँ हैं, उनमें भेद नहीं है। इसी प्रकार 'राम', 'रहीम' एक ही ईश्वर के दो नाम हैं। केवल नामों का भेद