यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
जर को अग ]
[१३७
 

है उसका पता नहीं लगाया जा सकता है उसी प्रकार जिस आत्मा का परमात्मा में समावेश हो गया उसको भी नही खोजा जा सकता है।

शब्दार्थ—हेरत-हेरत = खोजते खोजते। हिराइ = खो जाना। हेरी = पता लगाना।

हेरत हेरत हे सखी, रहया कबीर हिराइ।
समंद समाना बूँद मैं, सो कत हेर्या जाइ॥४॥

सन्दर्भ—हृदय स्थित ईश्वर को देखना मुश्किल है।

भावार्थ—कबीर की आत्मा अन्य सांसारिक आत्माओं से कहती है कि हे सखी! परमात्मा को खोजते खोजते मैं स्वयं खो गई। समुद्र (परमात्मा) बूँद (आत्मा) के अन्तःकरण मे हो व्याप्त है उसको कैसे खोजा जा सकता है।

शब्दार्थ—समद = समुद्र।

 

८. जर्णा कौ अंग

भारी कहौं त बहु डरौं, हलका कहूँ तो झूठ।
मैं का जांणौं राम कू, नैनूँ कपहूँ न दीठ॥१॥

सन्दर्भ—ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता है।

भावार्थयदि उस परमात्मा को भारी कहा जाय तो बहुत डर लगता है क्योकि वह निराकार है फिर भारी कैसे हो सकता है? और यदि हल्का कहूँ तो यह भी असत्य हो है। क्योंकि मैंने अपने भौतिक नेत्रों से परमात्मा को देखा ही नहीं है फिर उनके अस्तित्व के विषय में कह कैसे सकता हूँ।

शब्दार्थ—दीठ = देखा।

दीठा है तो कस कहूं, कह्या न को पतियाइ।
हरि जैसा है तैसा रहै, तू हरिष हरिष गुण गाइ॥२॥

सन्दर्भ—ईश्वर के अस्तित्व का बखान कठिन है। उसका स्मरण ही करना चाहिए।