सन्दर्भ - बिरह को अग्नि मे जल कर शिष्य् का भव सागर से उढार हो गया।
भावार्थ- गुरु ने ज्ञान को अग्नि प्रज्वलित की और शिष्य विरह (ज्ञान विगह)को अग्नि मे जल गया। तिनके के समान हल्की, पाप के भार से मुक्त आत्मा को उन्मपित हो गया और वह पूर्ण ब्रह्म से मिल कर एकाकर हो गया।
शब्दार्थ- राधा =दग्ध किया। जल्या= जला। विरहा= विरहग्नि। तिग्ग्का=तिनका। वपुडा= वपुरा=वेचारा। गलि=सहारे। पूरे= पूरग्ँ=प्रहा।
अहिडी दौ लाइया,मृग पुकारे ऱोई।
जा वन मे क्रीला करी,दाभत है वन सोइ ॥५॥
सन्दर्भ- ज्ञानाग्नि के लगते ही इन्द्रिया विषयो से उन्मुक्त हो गयि है।
भावार्थ- सतगुरु= अहेरी ने ज्ञान की अग्नि प्रज्वलित की,संसार रूपी वन गया और इस माया के वन मे वितरण करने वाले इन्द्रिय रूपी मृग रो उठे। जिस वन मे मृग किड़ा करते थे, अब वह वन जल गया। इस लिए मृग दुखि हो गये।
शब्दार्थ=अहेरी=शिकारि। दौ= दावाग्नि। मृग= इन्द्रिय। कीला= फीढा, सेन। दान्तन=दग्ध।
पारगी मंहि प्रजली, भई अप्रबल आगि।
वहती खलिता रह गई,मंल्ल रहे जल त्यागि॥६॥
सन्दर्भ- माया रूपी जल मे गनाग्नि लगी तो माया के साहयक तरव रुपयनि हो गये और लरमा माया से पुष्क हो गइ।
भावार्थ- मया के सागर मे गानागनि लगी तो पाया कि महयक तरन विनष्ट हो गये और लारमा रूपी नर्दश्थ गया के जल को धोद कर अलग हो गई।
शब्दार्थ- प्रयगि= प्रग्यश्ति हुई। सप्रबल= अत्यन्थ् प्रयल। मसिला=नहीं
समंदर सागी भागि, नदियां जलि कोइला भईं।
देन्पि घपिरा जगि मंधी रुपां घदी गई॥ १०॥
सन्दर्भ- मवर्गार के अग्नि को शग्नि गयी, माया ये ग्रह पर नष्ट हो गये और इयार कि महिमआ अनुकूल हो गई।