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यहाँ पर इन दोनों घटनाओं को सिकन्दर लोदी के अत्याचारों के अन्तर्गत मानने में अनुमान किया जा सकता है। 'आहि मेरे ठाकुर तुमरा जोरू' और 'गंगा की लहरि मेरी टुटी जंजीर' जैसी पंक्तियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने अपने अनुभवों का वर्णन स्वयं ही किया है।[१] यदि उपर्युक्त दोनों पदों (रागु गौंड ४ तथा भैरउ, १८) को प्रामाणिक मान लिया जाय तो कबीर को सिकन्दर लोदी का समकालीन माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त कोई भी अन्तर्साक्ष्य नहीं उपलब्ध होता है।

कबीर को सिकन्दर लोदी का समकालीन सिद्ध करने वाले कुछ बहिर्साक्ष्य प्रमाण भी हैं। रेवरेन्ड के, बील, फर्कहर, मेकालिफ, बेसकट, स्मिथ, भण्डारकर, ईश्वरी प्रसाद[२], तथा रामकुमार वर्मा[३] आदि विद्वान भी इस मत से सहमत हैं कि कबीर और सिकन्दर लोदी समकालीन हैं। इनके अतिरिक्त प्रियादास जी[४] ने भी कबीर और सिकन्दर को समकालीन माना है। अतः कबीरदास का युग पन्द्रहवी शताब्दी मानना असंगत न होगा। इस समय लोदी वंश के शासक सिकन्दर का राज्य था। लोदी वंश से पूर्व भारतवर्ष पर गुलाम, बलबन, खिलजी, तुगलक, तथा सैयद वंश राज्य कर चुके थे। कबीरदास से पूर्व प्रायः तीन सौ वर्षों तक मुसलमान इस देश पर राज्य कर चुके थे। राजनीतिक क्षेत्रों में मुसलमानों का ही प्रभुत्व रहा। इन तीन सौ वर्ष के मुसलमानी शासन काल मे भारतवर्ष की धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक दशा का ह्रास हो गया था। मुसलमानों की विकास शक्ति और धर्म ने देश का दृष्टिकोण ही बदल दिया। मध्य देश मे भी मुसलमानी तलवारों का पानी अनेक हिन्दू राज्यों के सिंहासन डुबो चुका था। हिन्दू राजाओं के पास न बल था, न साहस और न ऐक्य।

सिकन्दर की शक्ति, अधिकार और महत्वाकांक्षा निःसीम थी। उसके लिए कोई नियम नहीं था। देश का राज्य उसकी इच्छा और मन पर निर्भर था। देश की जनता और विशेष रूप से हिन्दू उसकी कृपा-कोर के आकांक्षी बने रहे। जनता के अधिकारों का कोई अस्तित्व नहीं था। उसके जीवन की सब से बड़ी सार्थकता थी शासक की आज्ञा पालन करना। सिकन्दर की राजनीति पर भी धार्मिक आदर्शों का प्रभाव था। वहाँ भी हिन्दुओं का कोई विद्रोह होता था वहाँ हिन्दुओं को जो दण्ड


  1. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ॰ रामकुमार वर्मा, पृ॰ ३३४।
  2. हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास पृ॰ ३३५।
  3. सन्त कबीर पृ॰ ३८।
  4. भक्तमाल की टीका, प्रियादास।