४. ग्यान विरह कौ अंग
दीपक पावक आँखिया, तेल भी आँण्या संग।
तीन्यूँ मिल करि जोइया, (तब) उडि उड़ि पड़े पतंग॥१॥
सन्दर्भ—जब से आत्मा चेतन हो गई, तब से वासनाएँ विनष्ट हो गई।
भावार्थ—जीवात्मा ज्ञान की ज्योति से और भक्ति रूपी स्नेह से सम्पन्न हो गया। अब वासना रूपी पतंगे आत्मा जल-जल कर नष्ट होने लगे।
शब्दार्थ—दीपक = जीवात्मा। पावक = अग्नि। आंणिया—आनिया = लाया। आण्या = आना = लाया। तेल = स्नेह, प्रेमी। जोइया = आयोजित किया। पतंग = वासना रूपी पतंगे।
मार्या है जे मरेगा, बिन सर थोथी भालि।
पड्या पुकारै ब्रिच्छ तरि, आजि मरै कै काल्हि॥२॥
सन्दर्भ—शब्द वाण से आहत प्राणी संसार से विलग होकर जीवन यापन करता है।
भावार्थ—शब्द रूपी भाले से आहत प्राणी अब संसार से विलग होकर, पृथक होकर जीवन यापन करता है। वह सद्गुरु के आश्रय में ब्रह्म का स्मरण कर रहा है। वह शीघ्र ही संसार की व्यथाओं से ऊपर उठ जायगा।
शब्दार्थ—विन सर = बिना शर = फलके के बिना। थोथी = झूठी = कोरी। भालि = भाला। ब्रच्छ = वृक्ष, पेड़।
हिरदा भीतरि दौं बलैं, घूँवा न प्रकट होइ।
जाकै लागी सो लखै, कै जिहि लाई सोइ॥३॥
सन्दर्भ—हृदय के अन्दर ज्ञान-विरह की ज्योति जल रही है। इसका अनुभव या तो साधक करता है, या सतगुरु।
भावार्थ—हृदय में प्रेम-विरह की अग्नि जल रही है परन्तु उसके लक्षण वाधतः नहीं प्रकट हो रहे हैं। इस अग्नि का वही अनुभव करता है, जिसके अन्तस में यह अग्नि लगी है या वह जिसने इस अग्नि को जाग्रत किया है।