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विरह कौ अंग]
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शब्दार्थ—देखत = प्रतीक्षा करते। जियरा = जी, प्राण।

विरहणी थी तौ क्यूँ रही, जली न पिठ के नालि।
रहु रहु मुगध गहेलडी, प्रेम न लाजूँ मारि॥३५॥

सन्दर्भ—सच्ची विरहिणी तो विरहाग्नि में स्वतः प्रदग्ध हो जाती है। तू प्रेम को क्यों लज्जित करता है।

भावार्थ—कबीरदास कहते हैं कि यदि तू विरहिणी थी तो प्रिय के साथ प्रिय की स्मृति में क्यों न जल गई। हे मुग्धा ठहर-ठहर तू प्रेम को लज्जित मत कर।

शब्दार्थ—रही = जीवित रही। नालि। मुगध = मुग्धा, नायिका जिसमें लज्जाधिक्य होता है। गहेलडी। लाजूँ लज्जित कर।

हौं विरहा की लाकड़ी, समझि समभि धूँधाऊँ।
छूटि पड़ौ या विरह तै, जे सारी ही जलि जाऊँ॥३६॥

सन्दर्भ—सच्ची विरहिणी प्रिय के वियोग में शनैः-शनैः जलती है। विरहिणी ये विरहप्रियता प्रमुख होती है ।

भावार्थ—मैं विरहिणी गीली लकड़ी के समान हूँ जो भभक कर नहीं, धीरे-धीरे जलती है। यदि भभक कर जल जाऊँ तो विरह से छुटकारा मिल जायगा। जो मुझे न प्रिय है, न अभीप्सित है।

शब्दार्थ—विरहा = विरह = वियोग। लाकडी = लकड़ी = ईंधन। समझि-समझि = धीरे-धीरे। धूँ घाऊँ धूँ, धूँ करके जलना = धीरे-धीरे जलना। पटौ पडूँ या = इन। सारी = समस्त। जलि = जल।

कबीर तन मन यौं जल्या, विरह अगनि सूँलागि।
मृतक पीड न जांणई, जाणैगी यहु आणि॥३७॥

सन्दर्भ—प्रेम की पीड़ा, विरह की व्यथा विरह ही जान बनता है, या विरहाग्नि स्वतः अपनी प्रवतता का अनुभव करेगी।

भावार्थ—कबीरदास कहते हैं विरहाग्नि के लगने से तन मन इस प्रकार जला कि उनकी कोई सीमा नहीं रही। विरह की व्यथा को मृतक (शुन्य) क्या जाने? विरहाग्नि उसकी ताप की प्रवलता को जानती है।

शब्दार्थ—जल्या = जला प्रदीप हुआ। अगनि = अग्नि, आग। मूँ = से। पीड़ = पीड़ा, व्यथा। जाँणाई = जानई—जानत है। जाणौगी = जानेगी।