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वह सगुण और निर्गुण से परे है। वह अनिर्वचनीय है, वह अलख और निरजन है। संसार के कण कण में वह परिव्याप्त है। ब्रह्म की अनुभूति सद्गुरु की कृपा ही होती है। संतमत में माया त्रिगुणात्मक है वह साधना में बाधक है। माया दो प्रकार की मानी गई है, एक विद्या और दूसरी अविद्या। अविद्या माया से ग्रसित प्राणी सांसारिक भोग विलासों में अनुरक्त रहता है। और विद्या सृष्टि की सृजनात्मक शक्ति है, ईश्वर प्राप्ति में सहायक है। अविद्या माया 'खाड' के समान मधुर है।

जगत—सन्त काव्य में जगत का जो स्वरूप विकसित हुआ है वह क्षण भंगुरता से परिपूर्ण है। यह जीवन नश्वर है और संसार अस्थिर हैं। संसार के कण-कण में ब्रह्म व्याप्त है और संसार उस ब्रह्म में पूर्णतया परिव्याप्त है। कबीर ने स्वतः कहा है—

खालिक खलक खलक मैं खालिक।
सब घट रह्यों समाई।
लोक जानि ना भूलो भाई॥

सन्त साहित्य में इसी जगत की प्रस्थापना हुई है।

सन्त मत के प्रवर्त्तक कबीर थे कबीर का व्यक्तित्व युग प्रवर्त्तक और महान या कबीर जिस युग में अवतरित हुए थे वह बिडम्बनाओं, विषमताओं और विविध प्रकार के पारस्परिक विरोधों का युग था।