यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८४]
[कबीर की साखी
 

कता तभी है, जब वह प्रेम या प्रीति रस मे ओत-प्रोत हो । वही जीवन धन्य है जो ब्रह्मा के रंग मे अनुरंजीत हो । इतना भी न हो, तो, जिस जिह्वा रामानाम रस से सिश्रित अवश्य होनी चहिए । परन्तु जिनके व्यक्तित्व मे उभय तत्वो का अभाव हो, उन्का संसार से उत्पन्न होना व्यर्थ है । (२) प्रस्तुत साखी मे कवि ने जीवन की सार्थकता का मुल्यांकन स्पष्ट शब्दो मे किया है ।

शब्दार्थ— फुनि=पुनि पुनः । रसना =जिह्वा । उपजि=उत्पन्न हो कर । पये=क्षय को प्राप्त हुए । वेकाम= व्यर्थ ।

कबीर प्रेम ना चषिया,चपि न लीया साल|
सूने घर का पहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव||

सन्दर्भ —अत्यन्त रोचक एवं सुन्दर अप्रस्तुत योजना से सम्पन्न प्रस्तुत साखी मे कबीर ने प्रेम तथा के मधुर स्वाद का उल्लेख किया है। जिन्हे यह महत्वपुर्ण अनुभव तथा सौभग्यपुर्ण परिस्थिति क आनन्द नही मिला, उन अभागो का इस संसार मे आना उसी प्रकार अर्थ विहीन है यथा सूने गृह मे अतिथि क आगमन प्नयॊजन रहित होता है ।

भावार्थ—कबीर का कथन है कि जिन प्राणियो ने प्रेम का आस्वादन नही किया और आस्वादन करके उसके आनन्द का अनुभव नही किया है । उन्का इस सन्सार मे जन्म लेना उसी प्रकार है यथा सुने घर मे पाहुन का आगमन निःसार होना है।

विशेष —(१)यथा शून्य मंदिर मे अतिथि के आगमन पर न कोइ स्वागत कर सकता है न उसके विदा के क्षरगो मे ममत्व पुर्ण अश्रु-प्रवाह कर सकता है, न कोइ स्नेह दे सकता है, न आशा ही कर सकता है , उसी प्रकार है वह प्राणी जिसने यहाँ से प्रेम नही किया (२) 'ज्यूॱॱॱॱॱॱॱॱजाव" से तात्पर्य है यथा खाली हाथ आया है उसी प्रकार उपलब्धि विहीन होकर वह जायेगा । अर्थात उसका संसार मे उत्पन्न होना व्यर्थ ही है।

शब्दार्थ— चपिया =चखिया=आस्वदन किया। लीया=लिया। स्वा =स्वाद। पाहुन्खा=पाहुना अतिथि । ज्यूं=ज्यों। त्युं=त्यों । जाव=जाय।

पहली बुरा कमाइ करि,बाँधी विष की पोट ।
कोटि करम पेलै पलक मैं (जय) आया हरि ओट॥१६॥