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सुमिरन कौ अंग ]
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सन्दर्भ्—"गुरुदेव कौ अंग" की तेइसवी साखी मे कवि ने कहा है "चेननि चौकी बैठिकरि, सतगुरु दीन्हाँ घोर । निरभै होइ निसंक भजि केवल कहै कबीर। "प्रस्तुत साखी मे कवि ने पुन: निसक और "निरभै" होकर राम का जप करने का उपदेश दिया है। मानव का जब तक जीवन दीपक जल रहा है, तब तक मानव को नाम जप करना चाहिए।

भावार्थ—कबीरदास का कथन है कि जब तक दीपक में बती है तब तक निर्भय होकर राम का जप कर। तेल के नि:शेष हो जाने पर बत्ती भुझ जायेगा और तू पांव पसार कर दिनरात सोयेगा।

विशेष—प्रस्तुत साखी मे कवि ने निर्भय होकर ब्रह्मा नाम जप का उपदेश दिया है। यह उपदेश कवि ने एक बड़ी ही सरल तथा स्वाभविक अप्रस्तुत योजना के माध्यम से व्यक्ति की है। शरीर रुपी मे प्राण रुपी वर्तिका है और सामर्थ्य रुपी तेल विधमान है इस वसिका और तेल के घट जाने पर मानव मृत्यु को प्राप्त हो जाता है और वह अनन्त काल तक सोता रहता है ।(२) शरीर से आत्मा के विलग हो जाने पर शरीर निश्चेष्ट हो जाता । जड शरीर के माध्यम से धर्म साधना अस्मभव हो जाता है। इसीलिए कवि ने यहाँ पर जीवन रहते रहते साधन करने के लिए उपदेश दिया है। (३)"(तब) सोवेगा दिन राति" का तात्पर्य यह है कि मृत्यु को प्राप्त होगा । (४) निरक्षर कबीर की अप्रस्तुत योजना कितनी यथार्थ ओर प्रभावशाली है,यह प्रस्तुत साखी से स्पष्ट हो जाउयगा ।

शब्दार्थ—निरभै=निभंय। जपि=जप। लग=तक । दोपै=दीपक मे वाति=वाती=वतिका। घटना=घटा। राती=रात

कबीर सूता क्या करे, जागि न जपै मुरारि ।
एक दिनां भी सोवणां,लवे पाँव पसारि ॥१२॥

सन्दर्भ—विगत साखी मे कवि ने कहा कि "तेन घटया वातो बुझी,(नव)सोवेगा दिन राति।" कर्तव्य ओर साधना से विमुत प्राणियो को चेतावनी प्रदान करते हुई कवि ने पुनः जागृत होकर नाम जपने के लिए मानव समाज को अनुप्राणित करने की चेष्टा की है।

भावार्थ—कबीरदास कहते है कि हे प्राणों सोया हुग तु क्या कर रहा है । जागृत होकर भगवान के नाम का स्मरण क्यो नहीं करता है। अनठोगता एक दिन तो लम्ये पैर पगार कर तुम्मे मोना ही है।

विशेष—(५) प्रस्तुत मागो मे कबीर ने मे प्रसतुत प्रागिदा को सपेत करते हुए कहा है जोयन के