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विवज्ञता से पूर्ण और असाहाय अवस्था से अभिशप्त थी वे वर्तमान और समक्ष विद्यमान अभिशापों से मुक्ति पाने के लिए 'अशरण-शरण' निर्गुण, निर्विकार, निर्विकल्प ब्रह्म की शरण में पहुँचने की चेष्टा कर रहे थे। क्रमशः हिन्दुओं का जीवन परिवर्तित होता जा रहा था। उनके मन्दिर मूर्त्तियों के ध्वंस हो जाने के कारण शून्य और छिन्न-भिन्न अवस्था में पड़े थे। वे किस भावना को लेकर मन्दिरों मे प्रवेश करते? हिन्दुओं की सामाजिक, सास्कृंतिक, धार्मिक, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर बहुमुखी प्रतिबन्ध लगा दिए गए थे। उनकी रसमयी जीवनधारा नीरस और शुष्क होने लगी थी। उनका राजनीतिक हष्टिकोण, निराशा के तिमिर से अच्छादिक होता जा रहा था। जब वीर ही न रहे तो चारण किसकी गाथा गाते और किसको सुनाते? राजनीतिक वातावरण क्रमशः शान्त होता चला जा रहा था। ऐसे वातावरण में हिन्दू जनता निर्गुण ब्रह्म की शरण में जाने का प्रयास करने लगी। निर्गुण ब्रह्म की कल्पना बड़ी उदात्त, उदार, विशाल थी। मुसलमानों का शासन, मूर्त्ति-उपासना के बिल्कुल विरुद्ध था। इसलिए देश की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए निर्गुण ब्रह्म की उपासना ही इस जटिल समस्या का हल था। कबीरदास संतमत के प्रवर्त्तक थे। उन्होंने हिंदू धर्म के मूल सिद्धान्तों को इस्लाम धर्म के आचारभूत सिद्धान्तों के साथ समान स्तर पर रखकर एक नए मत, एक नए पंथ की कल्पना को जिसमें ईश्वर एक अद्वैत, सगुण-निर्गुण से परे, निराकार, निर्विकार, निर्विकल्प और अनादि था। इस प्रकार के ब्रह्म की कल्पना न हिन्दुओं के लिए नई थी और न मुसलमानों के लिए। उपनिषदों में ऐसे ही ब्रह्म की उपासना का उपदेश दिया गया है। इस्लाम भी इस प्रकार के ब्रह्म की कल्पना से सवर्था परिचित था दोनों ही धर्मों के मिश्रण से एक अभिनव पंथ का स्वरूप प्राप्त हुआ, जो संतमत के नाम से भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में, और हिन्दी-साहित्य के इतिहास मे परिचित और विख्पात हुआ। सच बात यह है कि सतमत के विकसित होने, फूलने-फलने और प्रचारित होने का बहुत कुछ श्रेय इस्लाम धर्म को है। इस मत मे साधना का सच्चा, सरल, शुध्द और कल्याणकारी स्वरूप, भारतिय जनता को दॄष्टिगत हुआ। इस मत के कल्याणकारी सीमा में वाह्याचार, काया-प्रक्षालन, मूर्त्ति-पूजा, व्रत, तीर्थ वाग-नमाज सब कुछ हराम है, निषिद्ध है, और प्रसन्नता की बात यह है, कि यह मत हिन्दू-मुसलमान दोनों को ही सुमाद्ध और सरल प्रतीत हुआ। कर्मकाण्ड की वे दुरुहताएँ, जटिलताएँ और विपमताएँ जो हिन्दू और इस्लाम धर्म मे विद्धमान थी यहाँ पर मान्यता न प्राप्त कर सकी। संतमत में दोनों धर्मों के सार तत्वों को सिद्धान्तों के रूप में ग्रहण कर लिया गया।

संतमत में ब्रह्म की कल्पना बड़ी स्पृहणीय है। वह एक, अद्वैत, निर्गुण, निर्विकार, निर्विक्लप, अनादि, अनन्त, अजन्म, अजात, अमर, अनाम और अभेद