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हिन्दू धर्म
 


इसी प्रकार, और भी कई आवश्यक विषय हैं। उन्हें भी मैं आप लोगों के सम्मुख उपस्थित कर देना चाहता हूँ। साथ ही, यह भी बतलाना चाहता हूँ कि इन समस्याओं के हल करने या इन्हें कार्य रूप में परिणत करने का क्या उपाय है, तथा इस विषय पर बहुत कुछ सोचने-विचारने के बाद मैं किस सिद्धान्त पर पहुँचा हूँ, सभी बातें आप लोगों के सामने उपस्थित कर देना चाहता हूँ। पर दुःख है कि विशेष विलम्ब हो जाने के कारण मैं आप लोगों का अधिक समय लेना नहीं चाहता। अतएव, जातिभेद आदि अन्यान्य समस्याओं पर मैं फिर कभी कुछ कहूँगा। आशा है, भविष्य में हम लोग शान्ति और सुशृङ्खला के साथ सभा का कार्य आरम्भ करने की चेष्टा करेंगे।

सज्जनो, अब केवल एक बात और कहकर मैं आध्यात्मिक तत्व-विषयक अपना वक्तव्य समाप्त कर दूँगा। भारत का धर्म बहुत दिनों से गतिहीन है–वह स्थिर होकर एक जगह टिका हुआ है हम चाहते हैं कि उसमें गति उत्पन्न हो। मैं प्रत्येक मनुष्य के जीवन में इस धर्म को प्रतिष्ठित हुआ देखना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ कि प्राचीन काल की तरह राज-महल से लेकर दरिद्र के झोपड़े तक सर्वत्र समान भाव से धर्म का प्रवेश हो। याद रहे धर्म ही इस जाति का साधारण उत्तराधिकार एवं जन्मसिद्ध स्वत्व है। उस धर्म को हरएक आदमी के दरवाजे तक निःस्वार्थ भाव से पहुँचाना होगा। ईश्वर के राज्य में जिस प्रकार सब के लिये समानरूप से वायु प्राप्त

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