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हिन्दू धर्म और उसका सामान्य आधार
 

"जिसने उन्हें देख लिया, जो हमारे बहुत ही पास भी हैं--और बहुत दूर भी हैं, उसके हृदय की गाँठ खुल गई, उसके सब संशय दूर हो गये, और एक मात्र वही कर्मफल के बन्धन से छुटकारा पा गया।"

अफसोस! हम लोग प्रायः बेकार और अर्थहीन वागाडम्बर को ही आध्यात्मिक सिद्धान्त समझ बैठते हैं--पाण्डित्य-पूर्ण वक्तृताओं की झंकार सुनकर उसे ही हम धर्मानुभूति समझ लेते हैं। सारी साम्प्रदायिकताओं और सारे विरोध-भावों का मूल कारण यही है। अगर हम लोग एकबार इस बात को भलीभाँति समझ लें कि 'प्रत्यक्ष अनुभूति' ही प्रकृत धर्म है, तो हम अपने हृदय की ओर दृष्टि फेरकर यह समझने की चेष्टा करेंगे कि हम धर्म के सत्य की उपलब्धि की ओर कहाँ तक अग्रसर हुए हैं। तभी हम यह बात समझ सकेंगे कि हम जैसे अपने आप अन्धकार में वैसे ही औरों को भी अँधेरे में घुमा रहे हैं। बस, इतना समझने पर ही हमारी साम्प्रदायिकता और लड़ाई मिट जायगी। यदि केई तुमसे साम्प्रदायिक झगड़ा करने को तैयार हो, तो उससे पूछो कि उसने क्या ईश्वर के दर्शन किये है? क्या उसे कभी अत्मदर्शन प्राप्त हुआ है? यदि नहीं, तो उससे कह दो कि उसे ईश्वर का नाम प्रचारित करने का कोई अधिकार नहीं, क्योंकि वह तो स्वयं अन्धकार में घूम रहा है और फिर तुम्हें भी उसी अन्धकार में ले जाने की चेष्टा करता है। तुम दोनों ही

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