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हिन्दू धर्म और उसका सामान्य माधार
 

सकता है। कोई सम्प्रदाय वेद के किसी एक अंश को दूसरे वंश से अधिक पवित्र समझ सकता है। पर इससे कुछ आता-जाता नहीं; क्योंकि वेद पर हम सबका यह विश्वास है कि इसी एक सनातन, पवित्र तथा अपूर्व ग्रन्थ से हमें वे सारी चीजें मिलती हैं जो विशुद्ध हैं, महान् हैं, सर्वोत्कृष्ट हैं । अच्छा, यदि हमारा ऐसा विश्वास है, तो फिर इसी ताव का सारे भारतवर्ष में प्रचार हो । वेद सदा से जिस प्रधानता का अधिकारी है, और उसकी जिस प्रधानता को हम भी मानते हैं, उसे वह प्रधानता दी जाय । अर्थात् हम सबका सर्व-प्रथम मिलन-स्थान है 'वेद'।

दूसरी बात यह है कि हम सभी ईश्वर में अर्थात् संसार की सृष्टि-स्थिति-लय-कारिणी शक्ति में -जिसमें यह सारा चराचर लय होकर फिर समय आने पर जगत्-प्रपञ्च रूप से निकल आता है--विश्वास करते हैं। हमारी ईश्वर-विषयक कल्पना भिन्न-भिन्न प्रकार की हो सकती है -कुछ लोग ईश्वर को सम्पूर्ण सगुण रूप में, कुछ उन्हें सगुण तथापि अमानवभावापन्न रूप में, और कुछ सम्पूर्ण निर्गुण रूप में ही मान सकते हैं, और सभी अपनी अपनी धारणा की पुष्टि में वेद का प्रमाण दे सकते हैं। पर इन सब विभिन्नताओं के होते हुए भी हम सभी ईश्वर में विश्वास करते हैं इसी बात को दूसरे शब्दों में ऐसा भी कह सकते हैं-जिनसे सकल चराचर उत्पन्न हुआ है, जिनके अवलम्ब से वह जीवित है,और अन्त में वह फिर जिनमें लीन हो जाता है, उस अद्भुत अनन्त

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