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हिन्दू धर्म
 

भद्रमहोदयगण, मेरा विश्वास हैं कि कई ऐसी प्रधान प्रधान बातें हैं, जिन पर हम सब सहमत हैं, जिन्हें हम सभी मानते हैं। हम चाहे वैष्णव हों या शैव, शाक्त हों या गाणपत्य--चाहे प्राचीन वैदान्तिक सिद्धान्तों को मानते हों या अर्वाचीनों के ही अनुयायी हों,--पुरानी लकीर के फकीर हों अथवा नवीन सुधार-संस्कारवादी हों-कुछ भी क्यों न हों, पर वे सभी, जो अपने को हिन्दू कहते हैं, कुछ तत्वों पर समान रूप से विश्वास करते हैं।

सम्भव है कि उन तत्वों की व्याख्याओं में भेद है-और होना भी चाहिये; क्योंकि हम लोग सबको एक साँचे में नहीं ढाल सकते इस तरह की चेष्टा ही पाप है कि हम जिस तरह की व्याख्या करें, सबको वही व्याख्या माननी पड़ेगी अथवा हमारी ही प्रणाली का अनुसरण करना होगा-जबर्दस्ती ऐसी चेष्टा करना पाप है। भाइयो,आज यहाँ पर जो लोग एकत्र हुए हैं, शायद वे सभी एक स्वर से यह स्वीकार करेंगे कि हम लोग वेदों को अपने धर्म-रहस्यों का सनातन उपदेश मानते हैं। हम सभी यह विश्वास करते हैं कि वेदों का पवित्र शब्द-समूह अनादि और अनन्त है। जिस प्रकार प्रकृति का न आदि है न अन्त, उसी प्रकार इसका भी आदि-अन्त नहीं है।और, जब कभी हम इस पवित्र ग्रन्थ को स्पर्श करते हैं, तो उसी समय हमारे धर्म-सम्बन्धी सारे भेद-भाव और अगड़े मिट जाते हैं।हमारे धर्म-विषयक जितने भी भेद हैं, उनकी आन्तिम मीमांसा करने वाला यही वेद है। वेद क्या है, इस पर हम लोगों में मतभेद हो

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