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हिन्दू धर्म
 

के सम्बन्ध में श्रवण करता है और कई दिनों तक सुनने के पश्चात् यही पूछता है कि सब कुछ तो है, पर इससे धन कितना मिलेगा,इन्द्रिय-सुख कितना मिलेगा ? क्योंकि उसके लिये तो बिल्कुल स्वाभाविक बात यही है कि उसका सुख केवल इन्द्रियों में ही रहता है । पर हमारे ऋषियों का तो कहना यही है कि इन्द्रियजन्य सुख में ही तृप्त रहना, अनेक कारणों में से एक ऐसा कारण है, जो सत्य और हमारे बीच में आवरण डालता है। कर्म-काण्ड में रुचि, इन्द्रियों में तृप्ति तथा मत-मतान्तरों तक की ही गति हमारे और सत्य के बीच में पर्दे का काम करती हैं। यह दूसरी सीढ़ी हुई । हमें इस आदर्श का पता अन्त तक लगाना होगा और देखना होगा कि उसका आगे चलकर वेदान्त के अन्तर्गत माया के अद्भुत सिद्धान्त में किस प्रकार विकास हुआ। इसी माया के पर्दे की बात को वेदान्त अध्यात्मविषयक संशय के यथार्थ समाधान के रूप में सामने रखता है। वेदान्त का कहना है कि सत्य तो सदा विद्यमान ही था, पर वह केवल इस माया के आवरण से ढका हुआ था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि इन प्राचीन आर्य मनीषियों के मन में यह एक नये विषय का विचार उत्पन्न हुआ। वे यह जान गये कि उनके प्रश्न का यथोचित समाधान बाह्य जगत् में किसी प्रकार खोजने से नहीं मिल सकता। वे चाहे युगों तक बाहरी जगत् में ढूंढ़ते रहे, पर उनके प्रश्नों का उत्तर उससे नहीं मिल सकता। इसी कारण उन्होंने इस दूसरे उपाय का अवलंबन किया और

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