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वेदप्रणीत हिन्दू धर्म
 

उस प्रगति के एक और अंग की ओर कुछ संकेत कर सकता हूँ; पर उसका हमारे विषय से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है। इसलिये मैं उस पर अधिक कहना आवश्यक नहीं समझता । वह है कर्मकाण्ड की प्रगति । जहाँ आध्यात्मिक विचार एक गुना प्रगत हुए, वहाँ कर्मकाण्ड के विधि-विधान सम्बन्धी विचार दस गुने बढ़ते गये। पुराने अंधविश्वास तो इस समय तक बढ़कर विधि-विधानों का एक बड़ा समूह बन गया था और वह यहाँ तक बढ़ता गया कि उससे हिन्दू जीवन का प्रायः अवरोध ही हो गया। वह अभी भी है तथा हमें अच्छी तरह जकड़े हुए है तथा हमारे जीवन के प्रत्येक अंग में ओतप्रोत होकर उसने हमें जन्म से ही गुलाम बना रखा है । तथापि साथ ही साथ हम इस कर्मकाण्ड की बढ़ती के विरोध का प्रयत्न होते, अत्यन्त प्राचीन काल से ही देखते आरहे हैं। वहाँ इस कर्म-काण्ड के विरोध में एक बड़ी भारी आपत्ति यह उठाई गई है कि विधि-विधान में रुचि, विशिष्ट समय में विशिष्ट वस्त्र का परिधान,विशिष्ट प्रकार से भोजन करने की रीति, आदि आदि धार्मिक खांग और आडम्बर धर्म के केवल बाहरी रूप हैं; क्योंकि तुम इन्द्रियों में ही संतोष मान लेते हो और उनके परे जाना नहीं चाहते।हमारे तथा प्रत्येक मनुष्य के लिए, यही तो भारी कठिनाई है।जब हम आध्यात्मिक विषयों की चर्चा सुनते हैं, तब हम अधिक से अधिक क्या करते हैं? इन्द्रियों के वृत्त में ही तो हमारा आदर्श सीमित रहता है। एक व्यक्ति वेदान्त, ईश्वर और विश्वातीत विषयों

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