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हिन्दू धर्म
 

मर्यादित है; वह स्वतंत्र कैसे हो सकता है! आर्य ऋषि यह सत्य तो पहले ही जान चुके थे और बहुतेरे अन्य लोग वहीं रुक गये होते। अन्य देशों में यही घटना घटी; उतने से ही अनुसन्धान-शील मानव मन का समाधान नहीं हो सकता था, विचारशील सारमाही मन और आगे बढ़ना चाहता था; पर जो पिछड़े हुये थे,वे उन्हें पकड़ रखते थे और अग्रसर नहीं होने देते थे। परन्तु सौभाग्यवश ये हिन्दू ऋपिगण ऐसे नहीं थे, जिनकी प्रगति कोई रोक सके-वे तो समस्या को हल करना ही चाहते थे और अब हम देखते हैं कि वे बाह्य जगत् को छोड़ अन्तर्जगत् की ओर मुड़ते हैं। सर्वप्रथम तो उनके ध्यान में यह आ गया कि बाह्य जगत् का अनुभव तथा धर्मविषयक कोई भी प्रतीति हमें नेत्र अथवा अन्य इन्द्रियों द्वारा नहीं होती। तब तो पहले यही पता लगाना होगा कि कमी कहाँ है और जैसा कि हम देखेंगे, वह कमी भौतिक और नैतिक दोनों थीं। एक ऋषि कहते हैं कि तुम इस विश्व का कारण क्या है सो नहीं जानते; तुम्हारे और मेरे बीच में बड़ा भारी अन्तर उत्पन्न हो गया है; ऐसा क्यों ? कारण यही है कि तुम इन्द्रियविषयक वस्तुओं की चर्चा करते रहे हो और तुम उन्हीं वस्तुओं से और केवल धार्मिक विधियों से संतोप मान लेते हो जब कि मैंने उस द्वन्द्वातीत पुरुष को जान लिया है।

मैं आपके सामने आध्यात्मिक विचारों की प्रगति का दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न कर रहा हूँ, उसके साथ साथ मैं उस

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