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वेदप्रणीत हिन्दू धर्म
 

जाती है और सूक्ष्म से सूक्ष्मतर बन कर कुछ काल तक उसी अवस्था में रह जाती है। इसी अवस्था का वर्णन इस सूक्त में किया गया है। वह सत्ता अक्रिय, अचल, स्पंदनरहित थी और जब सृष्टि का आरम्भ हुआ, तब वह स्पन्दित होने लगी और उसी शान्त, आत्मविधृत, अद्वितीय सत्ता से यह सृष्टि बाहर निकल आई।

"तम आसीत् तमसा गूलहमग्रे"-प्रथम अंधकार अंधकार में छिपा हुआ था। इस वर्णन की महिमा आप लोगों में से वे ही समझ सकेगे, जो भारत या किसी अन्य उष्ण देश को गये हैं और वर्षा ऋतु का आरम्भ देखा है। इस दृश्य के वर्णन का प्रयत्न तीन कवियों ने जिस प्रकार किया है, वह मुझे याद आता है। मिल्टन का कथन है-"प्रकाश नहीं था, अंधकार ही दिखाई देता था।" कालिदास कहते हैं- "ऐसा अंधकार जिसका सुई द्वारा भेदन किया जा सकता है ।" पर "अंधकार में छिपा हुआ अंधकार” इस वैदिक वर्णन को कोई नहीं पाता । प्रत्येक वस्तु सूख रही है, झुलस रही है। सारा संसार मानो जल रहा है, कई दिनों से ऐसा हो रहा है। किसी दिन, दोपहर के बाद आकाश में एक कोने में छोटा सा बादल का टुकड़ा दिखाई देता है; आध घंटे से भी कम समय में वह बादल मानो सारे संसार भर में फैल जाता है। यहाँ तक कि वह सारे संसार को आच्छादित कर लेता है-बादल पर बादल आते जाते हैं और फिर प्रलयकारी घनघोर वर्षा होने लगती है,