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वेदप्रणति हिन्दू धर्म
 


करते हैं। वे यज्ञवेदी बनाते हैं, पशु की बलि देकर उसके पके मांस का नैवेद्य इन्द्र को अर्पण करते हैं। सोमलता उनकी एक प्यारी वस्तु थी। वह लता क्या थी यह आज कोई नहीं जानता; उसका अब बिलकुल लोप हो गया है, पर ग्रन्थों से मालूम होता है कि उसे कुचलने से दूध के समान एक रस निकलता था। उसमें खमीर उठाया जाता था और यह भी पता लगता है कि ऐसा सोमरस नशीला होता था। इसे भी वे इन्द्र एवं अन्यान्य देवताओं को निवेदित करते थे और स्वयं भी पीते थे। कभी कभी वे इसे कुछ आधिक पी लेते थे और इसी तरह देवता लोग भी। किसी किसी समय इन्द्र नशे में चूर हो जाते थे। कुछ ऋचाएँ ऐसी भी मिलती हैं कि इन्द्र एक बार इस सोमरस को बहुत अधिक पी गये और असम्बद्ध बातें करन लगे। वैसा ही वरुण के सम्बन्ध में है। ये भी एक देवता हैं, जो बहुत शक्तिसम्पन्न हैं; वे भी उसी प्रकार अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और वे भक्त सोमरस अर्पण कर उनका जयगान गाते हैं। युद्ध-देवता आदि की भी यही बात है; पर अन्य पौराणिक कथाओं की अपेक्षा संहिता की कथाओं में वैशिष्ट्य लानेवाली एक मुख्य बात यह है कि इन देवताओं में से प्रत्येक के साथ अनंतत्व की कल्पना सम्बद्ध है। कभी कभी यह अनंतत्व 'आदित्य' नाम से वर्णित किया गया है और अन्य स्थानों में वह दूसरे देवताओं से ही सम्बद्ध कर दिया गया है। उदाहरणार्थ, इन्द्र को लीजिये। किसी किसी सूक्त में आप देखेंगे कि इन्द्र देवधारी हैं, अत्यन्त शक्तिशाली

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