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हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता
 

साधक को किसी अवस्था पर रुकना नहीं चाहिये । वेदों का वाक्य है कि "बाह्रापूजा या मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था है; आगे बढ़ने का प्रयास करते समय मानसिक प्रार्थना साधना की दूसरी अवस्था है, और सब से उच्च अवस्था तो वही है, जब कि परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाये ।"* ध्यान रखो कि वही अनुरागी साधक जो पहले मूर्ति के सामने झुककर पूजा-प्रणामादि में मग्न रहता है, वही ज्ञान लाभ के पश्चात् तुम्हें बतलाता है- "सूर्य उस परमात्मा को प्रकाशित नहीं कर सकता है, न चंद्रमा या तारागण ही वह विद्युत्प्रभा भी परमेश्वर को उद्भासित नहीं कर सकती और न वह वस्तु जिसे हम अग्नि बल्कि उसी परमेश्वर के कारण ये सब प्रकाशित होते हैं।" पर वह साधक अब ब्राह्य मूर्तिपूजा से अतीत हो चुका है, इसलिए अन्य धर्मियों की तरह वह मूर्तिपूजा को गाली नहीं देता और न उसे पाप का मूल ही बताता है। वह तो उसे जीवन की एक आवश्यक अवस्था जानकर उसको स्वीकार करता है।"बाल्य


  • उत्तमो ब्रह्मसद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः।

स्तुतिर्जपोऽधभोभावो बहिःपूजाऽधमाधमा ॥

-महानिर्वाण तन्त्र,चतुर्थ उल्लास, १२

इन तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारके

नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।

तमेव भान्तमनुभाति सर्वे

तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ।।

-कठोपनिषट् २।२।१५

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