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हिन्दू धर्म
 

तेरी भाक्ति करूँ, केवल प्रेम के लिये ही तुझ पर मेरा निःस्वार्थ प्रेम हो।" * भगवान् श्रीकृष्ण के एक शिष्य, धर्मनंदन युधिष्ठिर उस समय के भारत के सम्राट थे । उनके शत्रुओं ने उन्हें राजसिंहासन से च्युत कर दिया था और उन्हें अपनी साम्राज्ञी के साथ हिमालय पर्वत के जंगल में आश्रय लेना पड़ा था। वहाँ एक दिन साम्राज्ञी ने उनसे प्रश्न किया,-" हे नाथ, आप इतने धार्मिक हैं कि लोग आपको धर्मराज कहते हैं। परन्तु ऐसा होते हुए भी आप को इतना दुःख क्यों सहना पड़ता है ?” युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, "महारानी, देखो यह हिमालय कैसा उदात और सुंदर है। मैं इससे प्रेम करता हूँ। यह मुझे कुछ नहीं देता; पर मेरा स्वभाव ही ऐसा है कि मैं उदात्त और सुंदर वस्तु पर प्रेम करता हूँ और इसी कारण मैं उस पर प्रेम करता हूँ। उसी प्रकार मैं ईश्वर पर प्रेम करता हूँ। वही अखिल सौन्दर्य, समस्त सुषमा का मूल है। वहीं एक ऐसा पात्र है, जिस पर प्रेम करना चाहिये । उस पर प्रेम करना मेरा स्वभाव है और इसीलिये मैं उस पर प्रेम करता हूँ। मैं किसी बात के लिये उससे प्रार्थना नहीं करता, मैं उससे कोई वस्तु नहीं माँगता । उसकी जहाँ इच्छा हो, मुझे रखे । मैं तो सब अवस्थाओं में केवल प्रेम के


  • न धनं न जनं न च सुन्दरी

कवितां वा जगदीश कामये।

मम जन्मनि जन्मनीश्वरे

भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥

-श्री चैतन्य महाप्रभु

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