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हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता
 

अब दूसरा प्रश्न यह है कि यह विशुद्ध, पूर्ण और विमुक्त मात्मा इस प्रकार जड़ का दासत्व क्यों करती है ? खयं पूर्ण होते हुए भी इस आत्मा को अपूर्णत्व की यह भ्रमात्मक धारणा कैसे हो सकती है ? हमें यह बताया जाता है कि हिन्दू लोग इस प्रश्न से किनारा कस लेते हैं और कह देते है कि ऐसा प्रश्न पूछा ही नहीं जा सकता। कुछ पण्डित लोग आत्मा और जीव दोनों के बीच में कई पूर्णकल्प सत्ताओं के अस्तित्व की कल्पना करते हैं और उन्हें अनेक प्रकार से बड़ी बड़ी वैज्ञानिक संज्ञाएँ दे देते हैं। परन्तु केवल नाम दे देने से ही तो मीमांसा नहीं हो जाती। प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहता है। जो पूर्ण है उसको पूर्णता किसी भी तरह या किसी भी अंश में कैसे कम हो सकती है ! जो नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाव है स्वभाव' का अणुमात्र भी न्यतिक्रम कैसे हो सकता है ? पर हिन्दू तो सत्य का निष्कपट पुजारी है। वह मिथ्या तर्कयुक्ति का सहारा नहीं लेना चाहता। वह सत्यनिष्ठ की तरह इस प्रश्न का सामना करने का साहस रखता है, और इस प्रश्न का

वह यही उत्तर देता है कि " पूर्ण आत्मा अपने को अपूर्ण कैसे समाने लगी, जड़ पदार्थों के संयोग से अपने को जड़-नियमाधीन कैसे मानने लगी, यह मैं नहीं जानता। पर बात यथार्थ में जैसी है, वैसी ही रहती है। यह बात यथार्थ में हर किसी को विदित है कि वह अपने को शरीर मानता है।" वह यह समझाने का प्रयत्न नहीं करता कि ऐसा क्यों होता है, वह शरीर में क्यों है। यह