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हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता
 


में विद्यमान हूँ और जब इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं विद्यमान रहूँगा ही, एवं इस शरीर-ग्रहण के पूर्व भी मैं विद्यमान था। अतः आत्मा किसी पदार्थ से सृष्ट नहीं हुआ है, क्योंकि सृष्टि का अर्थ है भिन्न भिन्न द्रव्यों का एकत्रीकरण और इस एकत्रीकरण का अर्थ होता है भविष्य में अवश्यम्भावी पृथक्करण। अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिये। इससे सिद्ध हो गया कि आत्मा का सृजन नहीं हुआ था, वह कोई सृष्ट पदार्थ नहीं है। पुनश्च, कुछ लोग जन्म से ही सुखी होते है, पूर्ण स्वास्थ्य का आनंद भोगते हैं, उन्हें सुंदर शरीर, उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त रहती हैं। अन्य कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ पांव नहीं होते, तो कोई निर्बुद्ध होते हैं, और येनकेन- प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं। ऐसा क्यों? यदि ये सभी एक ही न्यायी और दयालु ईश्वर के उत्पन्न किये हों तो फिर उसने एक को सुखी और दूसरे को दुःखी क्यों बनाया? भगवान् ऐसा पक्षपाती क्यों है? और ऐसा मानने से भी बात नहीं सुधर सकती कि जो इस वर्तमान जीवन में दुःखी हैं, वे भावी जीवन में पूर्ण सुखी ही रहेंगे। न्यायी और दयालु भगवान् के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी क्यों रहे? दूसरी बात यह है कि सृष्टि-उत्पादक ईश्वर को माननेवाले सृष्टि में इस वैषम्य के लिये कोई कारण बताने का प्रयत्न भी नहीं करते। इससे तो केवल एक सर्वशक्तिमान स्वेच्छाधारी पुरुष का निष्ठुर व्यवहार ही प्रतीत होता है। परन्तु यह

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