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कांग्रेस और उसके कर्ता-धर्ता


दुश्मन हैं, ऐसा मान लेना बुरी भावना है।

पाठक: आप जो कुछ कहते हैं वह अब मेरी समझमें कुछ आता है। फिर भी मुझे उसके बारेमें सोचना होगा। पर मि० ह्यूम, सर विलियम वेडरबर्न वगैराके बारेमें आपने जो कहा उसमें तो हद हो गई।

संपादक: जो नियम हिन्दुस्तानियोंके बारेमें है, वही अंग्रेजोंके बारेमें समझना चाहिये। सारेके सारे अंग्रेज बुरे हैं, ऐसा तो मैं नहीं मानूंँगा। बहुतसे अंग्रेज चाहते हैं कि हिन्दुस्तानको स्वराज्य मिले। उस प्रजामें स्वार्थ ज्यादा है यह ठीक है, लेकिन उससे हरएक अंग्रेज बुरा है ऐसा साबित नहीं होता। जो हक-न्याय[१]-चाहते हैं, उन्हें सबके साथ न्याय करना होगा। सर विलियम हिन्दुस्तानका बुरा चाहनेवाले नहीं हैं, इतना हमारे लिए काफी है। ज्यों ज्यों हम आगे बढ़ेंगे त्यों त्यों आप देखेंगे कि अगर हम न्यायकी भावनासे काम लेंगे, तो हिन्दुस्तानका छुटकारा जल्दी होगा। आप यह भी देखेंगे कि अगर हम तमाम अंग्रेजोंसे द्वेष[२] करेंगे, तो उससे स्वराज्य दूर ही जानेवाला है; लेकिन अगर उनके साथ भी न्याय करेंगे, तो स्वराज्यके लिए हमें उनकी मदद मिलेगी।

पाठक: अभी तो ये सब मुझे फिजूलकी बड़ी बड़ी बातें लगती हैं। अंग्रेजोंकी मदद मिले और उससे स्वराज्य मिल जाय, ये तो आपने दो उलटी बातें कहीं। लेकिन इस सवालका हल अभी मुझे नहीं चाहिये। उसमें समय बिताना बेकार है। स्वराज्य कैसे मिलेगा, यह जब आप बतायेंगे तब शायद आपके विचार मैं समझ सकूंँ तो समझ सकूंँ। फिलहाल तो अंग्रेजोंकी मददकी आपकी बातने मुझे शंकामें डाल दिया है और आपके विचारोंके खिलाफ मुझे भरमा दिया है। इसलिए यह बात आप आगे न बढ़ायें तो अच्छा हो।

संपादक: मैं अंग्रेजोंकी बातको बढ़ाना नहीं चाहता। आप शंकामें पड़ गये, इसकी कोई फिकर नहीं। मुझे जो महत्त्व[३]की बात कहनी है, उसे पहलेसे ही बता देना ठीक होगा। आपकी शंकाको धीरजसे दूर करना मेरा फर्ज़ है।

  1. इन्साफ़।
  2. नफ़रत।
  3. अहम्।