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गांधीजीने मुस्कराते हुए कहा: 'वैसा मैं कैसे हो सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है? खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी दांत-कुरेदनी[१] भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रोंके लिए नहीं है, बल्कि यंत्रोंके पीछे जो पालगपन चल रहा है, उसके लिए है। आज तो जिन्हें मेहनत बचानेवाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गये हैं। उनसे मेहनत ज़रूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं। समय और श्रमकी बचत तो मैं भी चाहता हूँ, परन्तु वह किसी खास वर्गकी नहीं, बल्कि सारी मानव-जातिकी होनी चाहिये। कुछ गिने-गिनाये लोगोंके पास संपत्ति जमा हो ऐसा नहीं, बल्कि सबके पास जमा हो ऐसा मैं चाहता हूँ। आज तो करोड़ोंकी गरदन पर कुछ लोगोंके सवार हो जानेमें यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रोंके उपयोगके पीछे जो प्रेरक कारण है वह श्रमकी बचत नहीं है, बल्कि धनका लोभ है। आजकी इस चालू अर्थ-व्यवस्थाके ख़िलाफ़ मैं अपनी तमाम ताक़त लगाकर युद्ध चला रहा हूँ।'

रामचन्द्रन् ने आतुरतासे पूछा: ‘तब तो, बापूजी, आपका झगड़ा यंत्रोंके खिलाफ़ नहीं, बल्कि आज यंत्रोंका जो बुरा उपयोग हो रहा है उसके ख़िलाफ़ है?’

‘जरा भी आनाकानी किये बिना मैं कहता हूँ कि ‘हाँ'। लेकिन मैं इतना जोड़ना चाहता हूँ कि सबसे पहले यंत्रोकी खोज और विज्ञान लोभके साधन नहीं रहने चाहिये। फिर मजदूरोंसे उनकी ताकतसे ज्यादा काम नहीं लिया जायगा, और यंत्र रुकावट बननेके बजाय मददगार हो जायेंगे। मेरा उद्देश्य[२] तमाम यंत्रोंका नाश करनेका नहीं है, बल्कि उनकी हद बांधनेका है।'

रामचन्द्रन् ने कहा: ‘इस दलीलको आगे बढ़ायें तो उसका मतलब यह होता है कि भौतिक[३] शक्तिसे चलनेवाले और भारी पेचीदा तमाम यंत्रोंका त्याग करना चाहिये।'

  1. खरका।
  2. मकसद।
  3. दुनियवी