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धारण करनेवाला होना चाहीये। ( खुदाध्यक्ष )आचारी अथवा रसोईदार पाकशास्त्र मे निपूण होना चाहीये। लेखक का अक्षर उत्तम होना चाहीये। दौवारिक चतुर अथवा वाक्पटु होना चाहीये। वैद्यको आयुर्वेद मे निपुण होना चाहीये। अन्तपुर का कर्मचारी व्रुध होना चाहिये। अन्तपुर मे काम करनेवलाली स्त्रिया ५० वर्श की अवस्था से अधिक और पुरुश ७० वर्श कि अवस्था से अधिक होने चाहीये। आयुधागार मे रहनेवाले मनुश्य को हमेशा सावधान रहना आवश्यक है। राजाओको नौकरोकि परीक्षा कर नियुक्त करना चाहिय्रे, अर्थात धर्मिश्ट को धर्म कार्य मे, शुरोको युध्द कार्य मे निपुनोको अर्थक्रुत्य मे नियुक्त करना चाहिये। पुश्तेनि नौकरोको निकालना नही चाहिये। चाहिये । वनगाजोको पकडने के लिये मन्त्रि को निपुणोकि योजना करनी चाहिये। पुश्तेनि नौकरोको दायाद प्रकरण मे नियुक्त नही करना चाहीये। क्योम्कि तत्र तेहि समा भत (१) ऍसा उल्लेख किया गया है। शत्रु के घर से भागकर यदि कोई अपने आश्रय मे आवे तो उसे ( वे ध्रुश्ट हो या सुश्टा ) आश्रय देना चाहिये। द्रुश्तोपर विश्वास नहि रखना चाहीये। परराश्त्रोमे गये हुवे गुप्तचर से सब समाचार जान लेने पर उसाका आदर करना चाहिये। नौकरोके दो विभाग करने चाहिये। शत्रु, अग्नि विश सर्प और आयुधोके लिये विशेश नौकर रखने चाहिये।खराब नौकर एक तरफ रहने चाहिये। राजाके सब विभागोमे जासुस रहने चाहीये। ये सौम्य अपरिचित और उस विभाग के लोगोसे अपरिचित होने चाहिये। ये व्यापारी मन्त्रिक जोतिशि वैद्य तथा सन्यस्त के समान मालुम होनेवाले तथा बलावल जाननेवाले होने चाहिये। इन लोगोपर पुर्न विश्वास न रखना चाहिये। किसी एक के शब्ध पर विश्वास न रखना चाहिये। सेवको अथवा प्रजा का क्रोध या प्रेम गुन और अवगुण जानकर राजा को बर्ताव करना चाहिये। राजा को सदा यह ध्यान रखना चाहिये कि लोगोके लाभ के लिये और प्रजा के हित के लिये हि वह सदा बनाया गया है। अम २२१ मे अनुजीविव्रुत अर्थात नौकरोको राजासे किस प्रकार बर्ताव करना चाहिये इस विशय के नियम दिये है। सेवक को राजाद्ना शिश्य के समान पालन करनी चाहिये। राजासे प्रिय बोलना चाहिये। अग्निय परन्तु हितकर एकान्त मे बोलना चाहिये। द्रुव्य का उपहार न करना चाहिये अथवा राजाकी मानहानी न करनी चाहीये। राजा के वेश भाशा अथवा चेश्ता का अनुकरण न करना चाहिये। जिस मनुश्य पर राजा का रोश है उसका साथ अत पुराध्यक्षको न करनी चाहिये। राजाकी गुप्त बाते उसको भी गुप्त रखनी चाहीये। अपना चातुर्य दीखाकर राजाको अपना बना लेना चाहिये। राजाके पुकारते ही चाहे कुछ आग्ना कि हो अथवा न की हो, तत्काल पुछना चाहिये कि क्या आज्ना है। राजाके दिये हुवे वस्त्र, अल्मकार अथवा रत्न धारण करने चाहिये। जिस द्वार से मुमानियत है, उससे प्रवेश कभी न करना चाहिये। जभाई लेना, थुकना, खासना, क्रोधित होना, पलग पर बैथना,माथा चधाना,जोरसे डकारना, वातासरान पादना इत्यादि राजाके समिप न करने चाहिये। अपने गुणोकी प्रशम्सा राजाको सदा विदीत होती रहे ऍसे मनुश्योन्को रखना चाहीये।शाथ्य, लौल्य, पैशुल्य,नास्तिक्य,क्षुद्र्ता,चापल्य इत्यादी दोश उनमे न होने चाहिये। बहुश्रुत होना चाहीये। विद्या और शिल्प मे उसे सदा तत्पर रहना चाहिये। वह कला जाननेवाला होना चाहिये। राजाके पुत्र,स्नेहपात्रो तथा मन्त्रि ईत्यादी लोगोको नित्य नमस्कार करना चाहिये। राजा की ईच्छा जानकर उससे समयानुसार बर्ताव करना चाहिये। राजाके बिना पुछे बोलना न चाहिये। आपत्तिमे भी राजा का काम करना चाहिये। थोडा देने पर भी सम्तुश्ट रहना चाहिये। राजाकि स्तुती सुनते ही सतुश्त होना चाहीये। समय समय पर राजाद्वारा निर्वाचित किये हुवे लोगोके पाससे हाल चाल लेते रहना चाहिये। अ २२२ मे दुर्ग सम्पत्ति राजा को दुर्ग का आश्रय लेना चाहिये। इस दुर्ग प्रदेश मे वैश्य शुद्रादीकोकी अधिक बस्ती होनी चाहीये। यह दुर्ग भुमी प्राय शत्रु की पहुच के बाहर की होनी चाहीये। इस जगह मे ब्राह्मन वस्ती थोडी हि होनी चाहीये। वह जगह देवमात्रुक न हो। ( जहा नदी वर्शा अथवा कुवा इत्यादि का पानी बहुत इकट्टा हो जाता है, उसे देवमात्रुक कहते है।) अर्थात यह प्रदेश पहाडी होना चाहीये। पानी की व्यवस्था करनी चाहीये। वहा शत्रु का प्रवेश न हो सकना चाहीये। सर्प तस्कर इत्यादी का भय इस प्रदेश मे न होना चाहीये। दुर्ग के छ प्रकार है। उनका वर्णन इस भाति है,धनुदुर्ग,महीदुर्ग,नरदुर्ग,वार्क्षदुर्ग,अम्बुदुर्ग,तथा गिरीदुर्ग,।